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सप्तसरोज
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चौपालमें बैठे हुए इनके सम्बन्धमे अपने कई असामियोंसे बातचीत कर रहे थे। शिवदीनने कहा, भैया, आप जाके दारोगाजी को काहे नाहीं समझावत हौ। राम राम! ऐसन अन्धेर।

बाबूलाल——भाई, मैं दूसरेके बीचमें बोलनेवाला कौन? शर्माजी तो वहीं है, वह आप ही बुद्धिमान हैं, जो उचित होगा करेगे। यह आज कोई नई बात थोडे ही है। देखते तो हो कि आये दिन एक-न-एक उपद्रव मचा रहता है। मुख्तार साहबका इसमें भला होता है। शर्माजीसे मैं इस विपयमें इसलिये कुछ नहीं कहता कि शायद वे यह समझे कि मैं ईषावश शिकायत कर रहा हूँ

रामदासने कहा, शर्माजी हैं और नीचु कोठापर बेचारनपर मार परत है। देखा नाहीं जात है। जिनसे मुराद पाय जात हैं उनका छोडे देत हैं। मोका तो जान परत है कि ई तहकिकात सहकिकात सब रुपैयनके खातिर कीन जात है।

बाबूलाल——और काहेके लिये की जाती है। दारोगाजी तो ऐसे ही शिकार दूढा करते हैं लेकिन देख लेना शर्माजी अबकी मुख्तार साहवकी जरूर खबर लेंगे। यह ऐसे वैसे आदमी नहीं है कि यह अन्धेर अपनी आंखोंसे देखें और मौन धारण कर लें? हां, यह तो बताओ, अबकी कितनी ऊख बोई है?

रामदास——ऊख बोये ढेर रहे मुदा दृष्टनके मारे बचै पावै। तू मानत नहीं हो भैया पर आंखन देखी बात है कि कराह-क-कराह रस जर गया और छटांको भर माल न परा। न जानी‌ इस कौन मन्तर मार देत है।

बाबूलाल——अच्छा, अबकी मेरे कहनेसे यह हानि उठा लो।