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सज्जनताका दण्ड
 


धूप तेज होती जाती थी। सरदार साहब झुंझलाकर मकान में चले गये और अपनी पत्नी से बोले, इतना दिन चढ़ आया, अभी तक एक चपरासी का भी पता नहीं। इनके मारे तो मेरे नाक में दम आ गया।

पत्नीने दीवार की ओर देखकर दीवार से कहा, यह सब उन्हें सिर चढ़ानेका फल है।

सरदार साहब चिढ़कर बोले, तो क्या करूं, उन्हें फांसी दे दूँ?

सरदार साहबके पास मोटरकारका तो कहना ही क्या कोई फिटिन भी न थी। वे अपने इक्के से ही प्रसन्न थे, जिसे उनके नौकर-चाकर अपनी भाषा में उड़नखटोला कहते थे। शहर के लोग उसे इतना आदर-सूचक नाम न देकर छकड़ा कहना ही उचित समझते थे। इस तरह सरदार साहब अन्य व्यवहारों में भी बड़े मितव्ययी थे। उनके दो भाई इलाहाबाद में पढ़ते थे। विधवा माता बनारस में रहती थीं। एक विधवा बहिन भी उन्हीं पर अवलम्बित थी। इनके सिवा कई ग़रीब लड़कों को छात्रवृत्तियाँ भी देते थे। इन्हीं कारणों से वे सदा ख़ाली हाथ रहते! यहाँ तक कि उनके कपड़ों पर भी इस आर्थिक दशा के चिह्न दिखायी देते थे! लेकिन यह सब कष्ट सह कर भी वे लोभ को अपने पास फटकने न देते थे! जिन लोगों पर उनका स्नेह था वे उनकी सज्जनता को सराहते थे और उन्हें देवता समझते थे। उनकी सज्जनता से उन्हें कोई हानि होती थी, लेकिन जिन लोगों से उनके व्यावसायिक सम्बन्ध