पृष्ठ:सप्तसरोज.djvu/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
९१
उपदेश
 

कर दिया है, होता सब उन्हीं की कमाईसे है, पर नेकनामी मेरी होती है।

इतने में कई असामी आये और बोले, भैया, पोत ले लो।

शर्माजीने सोचा, इसी लगानके लिये मेरे चपरासी खलिहानमें चारपाई डालकर सोते हैं और किसानोंको अनाजके ढेरके पास फटकने नहीं देते और वही लगान यहां इस तरह आपसे आप चला आता है। बोले, यह सब तो तर ही हो सकता है जब जमींदार आप गांवमें रहे।

बाबूलालने उत्तर दिया, जी हां और क्या? जमींदारके गांव मे न रहनेसे इन किसानोको घड़ी हानि होती है। कारिन्दो और नौकरोंसे यह आशा करनी भूल है कि वह इनके साथ अच्छा वर्ताव करेंगे क्योंकि उनको तो अपना उल्लू सीधा करनेसे काम रहता है। जो किसान उनकी मुट्ठी गरम करते हैं उन्हें मालिकके सामने सीधा और जो कुछ नहीं देते उन्हें बदमाश और सरकश बतलाते हैं। किसानोंको बात-बातके लिये चूसते हैं, किसान छान छवाना चाहे तो उन्हें दे, दरवाजेपर एक खूँटातक गाड़ना चाहे तो उन्हें पूजे, एक छप्पर उठानेके लिये दस रुपये जमींदार को नजराना दे तो दो रुपये मुंशीजीको जरूर ही देने होंगे। कारिंदे को घी दूध मुफ्त खिलावे, कहीं-कहीं तो गेहूँ चावल तक मुफ्तमें हजम कर जाते हैं। जमींदार तो किसानों को चूसते हैं, कारिंदे भी कम नहीं चूसते। जमींदार तीन पावके भावमें रुपये का सेरभर घी ले तो मुंशीजीको अपने घर अपने साले बहनोइयों के लिये अठारह छटांक चाहिये। तनिक तनिक सी बातके लिये डाड़