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समर-यात्रा
 

'आनन्द तो तुम्हारे हाथों बिके हुए हैं।'

रूपमणि ने विद्रोह-भरी आँखों से उसकी ओर देखा पर कुछ बोली नहीं । परिस्थितियां उसे इस समय बाधाओं-सी मालूम हो रही थीं। वह भी विशंभर की भांति स्वच्छन्द क्यों न हुई १ सम्पन्न मा-बाप की अकेली लड़की, भोग-विलास में पली हुई, इस समय अपने को कैदी समझ रही थी। उसकी आत्मा उन बन्धनों को तोड़ डालने के लिए ज़ोर लगाने लगी।

गाली भा गई । मुसाफ़िर चढ़ने-उतरने लगे। रूपमणि ने सजल नेत्रों से कहा-तुम मुझे नहीं ले चलोगे !

विशंभर ने दृढ़ता से कहा-नहीं।

क्यों

'मैं इसका जवाब नहीं देना चाहता।'

'क्या तुम समझते हो, मैं इतनी विलासासक्त हूँ कि देहात में रह नहीं सकती ?'

विशंभर लज्जित हो गया। यह भी एक बड़ा कारण था; पर उसने इनकार न किया-नहीं, यह बात नहीं।

'फिर क्या बात है ? क्या यह भय हैं, पिताजी मुझे त्याग देंगे ?'

'अगर यह भय हो तो क्या वह विचार करने योग्य नहीं !'

'मैं उसकी तृण-बराबर भी परवा नहीं करती।'

विशंभर ने देखा, रूपमणि के चांद-से मुँख पर गर्वमय संकल्प का आभास था। वह उस संकल्प के सामने जैसे काप उठा । बोला-मेरी यह याचना स्वीकार करो रूपमणि, मैं तुमसे विनती करता हूँ।

रूपमणि सोचती रही।

विशंभर ने फिर कहा-मेरी ख़ातिर तुम्हें यह विचार छोड़ना पड़ेगा।

रूपमणि ने सिर झुकाकर कहा--अगर तुम्हारा यह आदेश है, तो मैं उसे मानूंगी विशंभर ! तुम दिल में समझते हो, मैं क्षणिक आवेश में आकर इस समय अपने भविष्य को ग्रारत करने जा रही हूँ। मैं तुम्हें दिखा दूंगी, यह मेरा क्षणिक आवेश नहीं है, दृढ़ संकल्प है.। जाओ; मगर मेरी इतनी बात मानना कि कानून के पंजे में उसी वक्त आना जब आत्मा-