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समर-यात्रा
 

'किसी देशी दूकान पर न मिल जायगी ?'

'हाशिम की दुकान के सिवा और कहीं न मिलेगी।'

( २ )

सन्ध्या हो गई थी। अमीनाबाद में आकर्षण का उदय हो गया था। सूर्य की प्रतिभा विद्युत-प्रकाश के बुलबुलों में अपनी स्मृति छोड़ गई थी। अमरकान्त दबे पांव हाशिम की दूकान के सामने पहुँचा। स्वयंसेवकों का धरना भी था और तमाशाइयों की भीड़ भी। उसने दो-तीन बार अन्दर जाने के लिए कलेजा मज़बूत किया; पर फुटपाथ तक जाते-जाते हिम्मत ने जवाब दे दिया।

मगर साड़ी लेना ज़रूरी था। वह उसकी आँखों में खुब गई थी। वह उसके लिए पागल हो रहा था।

आख़िर उसने पिछवाड़े के द्वार से जाने का निश्चय किया। जाकर देखा,अभी तक वहाँ कोई वालंटियर न था। जल्दी से एक सपाटे में भीतर चला गया । और बीस-पच्चीस मिनट में उसी नमूने की एक साड़ी लेकर फिर उसी द्वार पर आया; पर इतनी ही देर में परिस्थिति बदल चुकी थी। स्वयंसेवक श्रापहुँचे थे। अमरकान्त एक मिनट तक द्वार पर दुविधे में खड़ा रहा । फिर तीर की तरह निकल भागा और अन्धाधुन्ध भागता चला गया। दुर्भाग्य की बात ! एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई चली आ रही थी। अमरकान्त उससेटकरा गया। बुढ़िया गिर पड़ी और लगी गालियां देने-खिों में चर्बी छागई है क्या ? देखकर नहीं चलते ? यह जवानी लै जायगी एक दिन !

अमरकान्त के पाव आगे न जा सके। बुढ़िया को उठाया और उससे क्षमा मांग रहे थे कि तीनों स्वयंसेवकों ने पीछे से आकर उन्हें घेर लिया।एक स्वयंसेवक ने साड़ी के पैकेट पर हाथ रखते हुए कहा-बिल्लाती कपड़ा हे जाये का हुक्म नहीं ना । बुलाइत है, तो सुनत नाही हौ !

दूसरा बोला-आप तो ऐसे भागे, जैसे कोई चोर भागे।

तीसरा-हजारन मनई पकड़-पकड़ करके जेहल में भरा जात अहैं, देश मा आग लगी है, और इनका मन बिल्लाती माल से नहीं भरा।