पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/११२

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होली का उपहार'
[ ११३
 

'शुभ नाम ?'

'अमरकान्त ।'

युवती ने तुरन्त जरा-सा घूघट खींच लिया और सिर झुकाकर संकोच और स्नेह से सने स्वर में बोली-आपकी पत्नी तो आपके घर में नहीं है, उसने फरमाइश कैसे की ?

अमरकान्त ने चकित होकर पूछा-आप किस मुहल्ले में रहती हैं ?

'घसियारीमण्डी।'

'आपका नाम सुखदादेवी तो नहीं है ।'

'हो सकता है, इस नाम की कई स्त्रियां हैं।'

'आपके पिता का नाम ज्वालादत्तजी है ?'.


'उस नाम के भी कई आदमी हो सकते हैं।'

अमरकान्त ने जेब से दियासलाई निकाली और वहीं सुखदा के सामने उस साड़ी को जला दिया।

सुखदा ने कहा-आप कल आयेंगे ?

अमरकान्त ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा-नहीं सुखदा, अब जब तक इसका प्रायश्चित्त न कर लूंगा, न आऊँगा।

सुखदा कुछ और कहने जा रही थी कि अमरकान्त तेजी से कदम बढ़ाकर दूसरी तरफ़ चले गये।

[ ३ ]

आज होली है; मगर आज़ादो के मतवालों के लिए न होली है न वसन्त हाशिम की दूकान पर श्राज भी पिकेटिंग हो रही है और तमाशाई आज भी जमा है । आज के स्वयंसेवकों में अमरकान्त भी खड़े पिवेटिंग कर रहे हैं। उनकी देह पर खद्दर का कुरता है और खद्दर की धोती । हाथ में तिरंगा झंडा लिये हैं।

एक स्वयंसेवक ने कहा-पानीदारों को यों बात लगती है। कल तुम क्या थे, आज क्या हो । सुखदा देवी न आ जाती, तो बड़ी मुश्किल होती।

अमर ने कहा-मैं उसके लिए तुम लोगों को धन्यवाद देता हूँ। नहीं मैं आज यहाँ न होता।