पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/११६

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अनुभव
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किसी ने पुकारा। मेरे रोयें खड़े हो गये। मैंने द्वार से कान लगाया। कोई मेरी कुण्डी खटखटा रहा था। कलेजा धक-धक करने लगा। वही दोनों बदमाश होंगे। क्यों कुण्डी खड़खड़ा रहे हैं ! मुझसे क्या काम है ? मुझे झुँझलाहट आ गई। मैंने द्वार खोला और छज्जे पर खड़ी होकर ज़ोर से बोली-कौन कुण्डी खड़खड़ा रहा है?

आवाज़ सुनकर मेरी शंका शांत हो गई। कितना ढारस हो गया। यह बाबू ज्ञानचन्द थे। मेरे पति के मित्रों में इनसे ज़्यादा सज्जन दूसरा नहीं है । मैंने नीचे जाकर द्वार खोल दिया । देखा तो एक स्त्री भी थी। यह मिसेज़ ज्ञानचन्द थीं । वह मुझसे बड़ी थीं । पहले-पहल मेरे घर आई थीं। मैंने उनके चरण-स्पर्श किये। हमारे यहाँ मित्रता मर्दो ही तक रहती है। औरतों तक नहीं जाने पाती।

दोनों जने ऊपर आये। ज्ञान बाबू एक स्कूल में मास्टर हैं । बड़े ही उदार, विद्वान् , निष्कपट ; पर आज मुझे मालूम हुआ कि उनकी पथप्रदर्शिका उनकी स्त्री हैं। वह दुहरे बदन की,प्रतिभाशाली महिला थीं। चेहरे पर ऐसा रोब था, मानो कोई रानी हों। सिर से पांव तक गहनों से लदी हुई। मुख सुन्दर न होने पर भी आकर्षक था। शायद मैं उन्हें कहीं और देखतो, ता मुँह फेर लेती। गर्व की सजीव प्रतिमा थीं ; पर बाहर जितनी कठोर, भोतर उतनी ही दयालु थीं।

'घर कोई पत्र लिखा ?'--यह प्रश्न उन्होंने कुछ हिचकते हुए किया।

मैंने कहा-हाँ, लिखा था।

'कोई लेने आ रहा है ?'

'जी नहीं । न पिताजी अपने पास रखना चाहते हैं, न ससुरजी।'

'तो फिर ?'

'फिर क्या, अभी तो यहीं पड़ी हूँ।'

'तो मेरे घर क्यों नहीं चलती ? अकेले तो इस घर में मैं न रहने दूंँगी। खुफ़िया के दो आदमी इस वक्त भी डटे हुए हैं।'

'मैं पहले ही समझ गई थी, दोनो खुफ़िया के आदमी होंगे।'