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समर-यात्रा
 

ज्ञान बाबू को धैर्य कहाँ ? पेट में बात की गन्ध तक न पचती थी। आग्रह से बुलाया- तुमसे तो उठा नहीं जाता। मेरी जान आफत में है।

देवीजी ने बैठे-बैठे कहा-तो कहते क्यों नहीं, क्या कहना है ?

'यहाँ आओ।'

'क्या यहां कोई और बैठा हुआ है ?'

मैं वहां से चली। बहन ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं ज़ोर करने पर भी न छुड़ा सकी । ज्ञान बाबू मेरे सामने न कहना चाहते थे; पर इतना सन भी न था, कि जरा देर रुक जाते । बोले, प्रिन्सिपल से मेरी लड़ाई हो गई।

देवीजी ने बनावटी गम्भीरता से कहा-सच! तुमने उसे खूब पीटा न ?

'तुम्हें दिल्लगी सूझती है। यहाँ नौकरी जा रही है।'

'जब यह डर था, तो लड़े क्यों ?'

'मैं थोड़े ही लड़ा। उसी ने मुझे बुलाकर डांटा।'

'बेकसूर

'अब तुमसे क्या कहूँ !'

फिर वही र्दा। मैं कह चुकी, यह मेरी बहन है। मैं इससे कोई पर्दा नहीं रखना चाहती।

'और जो इन्हीं के बारे में कोई बात हो, तो ?'

देवीजी ने जैसे पहेली बूझकर कहा- अच्छा, समझ गई। कुछ खुफियों का झगड़ा होगा। पुलीस ने तुम्हारे प्रिन्सिपल से शिकायत की होगी।

' ज्ञान बाबू ने इतनी आसानी से अपनी पहेली का बूझा जाना स्वीकार न किया।'

बोले-पुलीस ने प्रिन्सिपल से नहीं ; हाकिम जिला से कहा । उसने प्रिन्सिपल को बुलाकर मुझसे जवाब तलब करने का हुक्म दिया।

देवी ने आभास से कहा-समझ गई। प्रिन्सिपल ने तुमसे कहा होगा, कि उस स्त्री को घर से निकाल दो।

'हाँ , यही समझ लो!'

'तो तुमने क्या जवाब दिया !'

'अभी कोई जवाब नहीं दिया। वहां खड़े-खड़े क्या कहता !'