पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/१२०

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अनुभव
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देवीजी ने उन्हें आड़े हाथों लिया---जिस प्रश्न का एक ही जवाब हो,उसमें सोच-विचार कैसा ?

ज्ञान बाबू सिटपिटाकर बोले---लेकिन कुछ सोचना तो ज़रूरी था!

देवीजी की त्योरिया बदल गई, आज मैंने पहली बार उनका यह रूप देखा । बोली-तुम उस प्रिन्सिपल से जाकर कह दो, मैं उसे किसी तरह नहीं छोड़ सकता और न माने, तो इस्तीफ़ा दे दो। अभी जाओ । लौटकर हाथ-मुंह धोना।

मैंने रोकर कहा-बहन, मेरे लिए...

देवी ने डाँट बताई-तू चुप रह, नहीं कान पकड़ लूँगी । तू क्यों बीच में कूदती है । रहेंगे, तो साथ रहेंगे। मरेंगे, तो साथ मरेंगे । इस मर्दुवे को मैं क्या कहूँ ! आधी उम्र बीत गई और अभी बात करना न आया। (पति से)खड़े सोच क्या रहे हो ? तुम्हें डर लगता हो, तो मैं जाकर कह आऊँ।

ज्ञान बाबू ने खिसियाकर कहा-तो कल कह दूंगा, इस वक्त कहाँ होगा, कौन जाने।

रात भर मुझे नींद नहीं आई । बाप और ससुर जिसका मुँह नहीं देखना चाहते, उसका यह आदर ! राह की भिखारिन का यह सम्मान ! देवी, तू सचमुच देवी है।

दूसरे दिन ज्ञान बाबू चले, तो देवी ने फिर कहा---फैसला करके घर आना । यह न हो कि फिर सोचकर जवाब देने की जरूरत पड़े।

ज्ञान बाबू के चले जाने के बाद मैंने कहा---तुम मेरे साथ बड़ा अन्याय कर रही हो बहनजी ! मैं यह कभी नहीं देख सकती, कि मेरे कारण तुम्हें यह विपत्ति झेलनी पड़े।

देवी ने हास्य-भाव से कहा-कह चुकी या कुछ और कहना है ‌। 'कह चुकी; मगर अभी बहुत कुछ कहूँगी।'

'अच्छा, बता तेरे प्रियतम क्यों जेल गये ? इसी लिए तो कि स्वयंसेवकों का सत्कार किया था। स्वयंसेवक कौन है ? यह हमारी सेना के वीर हैं,जो हमारी लड़ाइयां लड़ रहे हैं । स्वयंसेवकों के भी तो बाल-बच्चे होंगे, मा-बाप होंगे, वे भी तो कोई कार-बार करते होंगे ; पर देश की लड़ाई लड़ने