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पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/१३४

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समर-यात्रा
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मैकू बोला---मालूम होता है, हमें लूट-लूर कर घर भर लिया है, क्यों ?

काले खां गंभीर स्वर में बोला---क्या, जो आदमी भटकता रहे, उसे कभी सीधे रास्ते पर न आने दोगे भाई ! अब तक जिसका नमक खाता था, उसका हुक्म बजाता था। तुमको लूट-लूट कर उसका घर भरता था। अब मालूम हुआ, कि मैं बड़े भारी मुगालते में पड़ा हुआ था। तुम सब भाइयों को मैंने बहुत सताया है। अब मुझे माफ़ी दो।

पांचों रंगरूट एक दूसरे से लिपटते थे, उछलते थे, चीखते थे, मानो उन्होंने सचमुच स्वराज्य पा लिया हो, और वास्तव में उन्हें स्वराज्य मिल गया था। स्वराज्य चित्त की वृत्तिमात्र है। ज्योंही पराधीनता का प्रातक दिल से निकल गया, आपको स्वराज्य मिल गया। भय ही पराधीनता है, निर्भयता ही स्वराज्य है । व्यवस्था और संगठन तो गौरव है।

नायक ने उन सेवकों को संबोधित करके कहा---मित्रो, आप आज आज़ादी के सिपाहियों में आ मिले, इस पर मैं आपको बधाई देता हूँ। आपको मालूम है, हम किस तरह की लड़ाई करने जा रहे हैं ! आपके ऊपर तरह-तरह की सख्तियां की जायंगी; मगर याद रखिए, जिस तरह आज आपने मोह और लोभ का त्याग कर दिया है, उसी तरह हिंसा और क्रोध का भी त्याग कर दीजिए। हम धर्म-संग्राम में जा रहे हैं। हमें धर्म के रास्ते पर जमे रहना होगा। आप इसके लिए तैयार हैं ?

पांचों ने एक स्वर से कहा---तैयार हैं !

नायक ने आशीर्वाद दिया---ईश्वर आपकी मदद करे।

(६)

उस सुहावने, सुनहले, प्रभात में जैसे उमंग घुली हुई थी। समीर के हलके-हलके झोकों में, प्रकाश की हलकी-हलकी किरणों में उमंग सनी हुई थी। लोग जैसे दीवाने हो गये थे। मानो आजादी की देवी उन्हें अपनी ओर बुला रही हो। वही खेत-खलिहान हैं, वही बाग-बगीचे हैं, वही स्त्री-पुरुष हैं ; पर आज के प्रभात में जो आशीर्वाद है, जा वरदान है, जो विभूति है, वह और कभी न थी। वही खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, स्त्री-पुरुष आज एक नई विभूति में रँग गये हैं ।