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शराब की दूकान
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उसी लेमनेड की दुकान पर बैठ गया। उसे ज़ोर की प्यास लगी थी। उसने.एक ग्लास शर्बत बनवाया और सामने मेज़ पर रखकर विचार में डूब गया;मगर आँखें और कान उसी तरफ़ लगे हुए थे।

जब कोई आदमी दूकान पर प्राता,वह चौंककर उसकी तरफ़ ताकने लगता-वहाँ कोई नई बात तो नहीं हो गई ?

कोई आध घंटे बाद वही स्वयंसेवक फिर डरा हुआ-सा आकर खड़ा हो गया। जयराम ने उदासीन बनने की चेष्टा करके पूछा -- वहाँ क्या हो रहा है जी ?

स्वयंसेवक ने कानों पर हाथ रखकर कहा -- मैं कुछ नहीं जानता बाबूजी,मुझसे कुछ न पूछिए।

जयराम ने एक साथ ही नम्र और कठोर होकर पूछा -- फिर कोई छेड़-छाड़ हुई ?

स्वयंसेवक -- जी नहीं,कोई छेड़-छाड़ नहीं हुई। एक आदमी ने देवी-जी को धक्का दे दिया, वे गिर पड़ी।

जयराम निःस्पन्द बैठा रहा;पर उनके अन्तराल में भूकम्म-सा मचा हुआ था। बोला-उनके साथ के स्वयं सेवक क्या कर रहे हैं ?

'खड़े हैं,देवीजी उन्हें बोलने ही नहीं देतीं।"

'तो क्या बड़े ज़ोर से धक्का दिया ?'

‘जी हां,गिर पड़ीं। घुटनों में चोट आ गई। वे आदमी साथ पी रहे थे। जब एक बोतल उड़ गई, तो उनमें से एक आदमी दूसरी बोतल लेने चला। देवीजी ने रास्ता रोक लिया। बस, उसने धका दे दिया। वही, जो काला-काला मोटा-सा आदमी है। कलवाले चारों आदमियों की शरारत है।'

जयराम उन्माद की दशा में वहाँ से उठा और दौड़ता हुआ शराबखाने के सामने आया। मिसेज़ सकसेना सिर पकड़े जमीन पर बैठी हुई थी और वह काला, मोटा आदमी दूकान के कठघरे के सामने खड़ा था। पचासों आदमी जमा थे। जयराम ने उसे देखते ही लपककर उसकी गर्दन पकड़