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समर-यात्रा
 

लज्जित करती हैं, तो ग्लानि उत्पन्न होती है। वीरबलसिंह की, इस वक्त इतनी हिम्मत न थी कि फिर उन महिलाओं के सामने जाते। अपने अफसरों पर क्रोध आया। मुझी को बार-बार क्यों इन कामों पर तैनात किया जाता है। और लोग भी तो हैं, उन्हें क्यों नहीं लाया जाता? क्या मैं ही सबसे गया बीता हूँ? क्या मैं ही सबसे भावशन्य हूँ ?

मिट्ठो इस वक्त मुझे दिल में कितना कायर और नीच समझ रही होगी। शायद इस वक्त मुझे कोई मार डाले, तो वह ज़बान भी न खोलेगी। शायद मन में प्रसन्न होगी कि अच्छा हुआ। अभी कोई जाकरे साहब से कह दे, कि वीरबल सिंह की स्त्री जुलूस में निकलती थी, तो कहीं का न रहूँ। मिट्ठो जानती है, समझती है, फिर भी निकल खड़ी हुई। मुझसे पुछा तक नहीं। कोई फ़िक्र नहीं है न, जभी ये बातें सूझती हैं। वहाँ सभी बेफ़ि हैं, कॉलेजों और स्कूलों के लड़के, मज़दूर, पेशेवर, इन्हें क्या चिन्ता ! मरन तो हम लोगों की है, जिनके बाल-बच्चे हैं, और कुल-मर्यादा का ध्यान है। सब-की-सब मेरी तरफ़ कैसा घूर रही थीं, मानो खा जायँगी।

जुलूस शहर की मुख्य सड़कों से गुज़रता हुआ चला जा रहा था। दोनों ओर छतों पर, छज्जों पर, जंँगलों पर, वृक्षों पर दर्शकों की दीवारें-सी खड़ी थीं। वीरबलसिंह को आज उनके चेहरों पर एक नई स्फूर्ति, एक नया उत्साह, एक नया गर्व झलकता हुआ मालूम होता था। स्फूर्ति थी वृद्धों के चेहरों पर, उत्साह युवकों के और गर्व रमणियों के। यह स्वराज्य के पथ पर चलने का उल्लास था। अब उनकी यात्रा का लक्ष्य अज्ञात न था, पथ भ्रष्टों की भाँति इधर-उधर भटकना न था, दलितों की भाति सिर झुकाकर रोना न था। स्वाधीनता का सुनहला शिखर सुदूर आकाश में चमक रहा था। ऐसा जान पड़ता था, लोगों को बीच के नालों और जंगलों की परवा नहीं है, सब उस सुनहले लक्ष्य पर पहुँचने के लिए उत्सुकं हो रहे हैं।

ग्यारह बजते-बजते जुलूस नदी के किनारे जा पहुँचा, जनाज़ा उतारा और लोग शव को गगास्नान कराने के लिए चले। उसके शीतल, शान्त, पीले मस्तक पर लाठी की चोट साफ़ नज़र आ रही थी। रक्त जमकर काला हो गया था। सिर के बड़े-बड़े बाल खून जम जाने से किसी चित्रकार