पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/९१

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मैकू

कादिर और मैकू ताड़ीखाने के सामने पहुंँचे, तो वहीं कांग्रेस के वालंटियर झंडा लिये खड़े नज़र आये। दरवाज़े के इधर-उधर हज़ारों दर्शक खड़े थे। शाम का वक्त था। इस वक्त गली में पियक्कड़ों के सिवा और कोई न आता था। भले आदमी इधर से निकलते झिझकते । पियक्कड़ों की छोटी-छोटी टोलियां आती-जाती रहती थीं। दो-चार वेश्याएँ दूकान के सामने खड़ी नज़र आती थीं। आज यह भीड़-भाड़ देखकर मैकू ने कहा-बड़ी भीड़ है बे, कोई दो-तीन सौ आदमी होंगे।

कादिर ने मुसकिराकर कहा-भीड़ देखकर डर गये क्या ? यह सब हुर्र हो जायँगे, एक भी न टिकेगा । यह लोग तमाशा देखने आये हैं, लाठियां खाने नहीं आये हैं।

मैकू ने सन्देह के स्वर में कहा--मगर पुलीस के सिपाही भी तो बैठे हैं। ठीकेदार ने तो कहा था, पुलीस न बोलेगी।

क़ादिर-हाँ बे, पुलीस न बोलेगी ; तेरी नानी क्यों मरी जा रही है। पुलीस वहाँ बोलती है, जहां चार पैसे मिलते हैं, या जहाँ कोई औरत का मामला होता है। ऐसी बेफ़जूल बातों में पुलीस नहीं पड़ती। पुलीस तो और शह दे रही है। ठीकेदार से साल में सैकड़ों रुपये मिलते हैं । पुलीस इस वक्त उसकी मदद न करेगी तो कब करेगी ?

मैकू-चलो, आज दस हमारे भी सीधे हुए। मुफ़्त में पियेंगे वह अलग। मगर सुनते हैं, कांग्रेसवालों में बड़े-बड़े मालदार लोग शरीक है। वह कहीं हम लोगों से कसर निकालें तो बुरा होगा।

क़ादिर-अबे, कोई कसर-बसर नहीं निकालेगा, तेरी जान क्यों निकल रही है ? कांग्रेसवाले किसी पर हाथ नहीं उठाते, चाहे कोई उन्हें मार ही डाले। नहीं तो उस दिन जुलूस में दस-बारह चौकीदारों की मजाल थी कि दसहज़ार आदमियों को पीटकर रख देते । चार तो वहीं ठण्ढें हो गये थे, मगर