पृष्ठ:समाजवाद पूंजीवाद.djvu/१२

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फिर विचार करें!

कुछ ही पीढ़ियों में ऐसे-ऐसे नवीन परिवर्तन हो गये हैं जिनका पहले किसी को गुमान भी नहीं होता था। आज जाति-पाति तोड़ कर विवाह और विधवा विवाह होते हैं, ऊँच और नीच का भेद-भाव मिट रहा है, जहाज़ों में बैठ कर समुद्र पार की यात्रा की जाती है, कुछ ही दिन में रेलों द्वारा चारों धाम की यात्रा हो जाती है, बड़े-बड़े कारखानों में लाखों मजदूर काम करते हैं और भीमकाय मशीनों द्वारा एक दिन में ही इतनी उत्पत्ति कर लेते हैं जितनी हाथों से महीनों में भी नहीं हो सकती और स्त्रियाँ पर्दा छोड़ कर कौंसिलों में जाती हैं और वकालत करती हैं। ये बातें हमारी समाज-व्यवस्था की स्वाभाविक अंग बनती जा रही हैं । हम समझने लगे हैं कि हमेशा से ऐसा ही होता आया है और आगे भी होता रहेगा, किन्तु यदि यही बातें हमारे दादा परदादाओं से कही जाती तो वे कहने वालों को अवश्य पागल समझते।

हम सब लोग दुनिया में बिना खाये, पिये और पहिने नहीं रह सकते, इसलिए हमें सभी को यह फ़िक्र तो रहती ही है कि हम जैसे भी हो वैसे, जहाँ से भी हो वहाँ से, इतना धन तो पैदा कर ही लें कि हमारा आराम से गुज़र हो जाय। हाँ, कुछ लोग ऐसे ज़रूर हैं जिनके पास उनके पूर्वजों की संगृहीत या स्वयं उपार्जित इतनी सम्पत्ति है कि उन्हें अपने निर्वाह की अधिक चिंता नहीं है या कुछ को विल्कुल नहीं है। किन्तु ज्यादातर लोग तो ऐसे ही हैं जिन्हें न तो भरपेट उचित खाना ही मिलता है, न पहिनने को काफी कपड़े और न रहने को सादी और छोटी झोपड़ी ही। यह सब देखने में भी कष्टकर है ! जब सभी लोगों को खाने, पीने, पहिनने और रहने की समान ज़रूरत है तो फिर क्या कारण है कि हर एक की आवश्यकता समान रूप से पूरी नहीं होती ? आय की