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समाजवाद:पूँजीवाद


दिया और अन्य देशों के बाजाशज़ारों में सस्ता माल बेचने लगे। उस समय कोई भी रुपया इकट्ठा करने की कोशिश न करता था, क्योंकि उसकी कीमतें घन्टे-घन्टे मे कम होती रहती थी। जो भोजन एक घन्टे पहले पचास लाख मे मिल सकता था, उसकी घन्टे भर बाद ७० लाख कीमत हो जाती। इसलिए सब लोगों का यही ध्यान रहता कि रुपया खर्च कर दिया जाय और उसके बदले कोई ऐसी ठोस चीज़ खरीद ली जाय जिसकी उपयोगिता नष्ट न हो और मूल्य बरावर क़ायम रहे । इस उथल-पुथल का उस समय अन्त हुया, जय जर्मन सरकार ने नये सोने के सिक्के जारी किये और पुराने नोटों को रद्द कर दिया।

रुपये का मूल्य कैसे कम या ज्यादा होता है, यह हमने देख लिया। चूंकि रुपये का मूल्य कम होने से लेनदारों को और तेज होने से देनदारों को धोखा होता है, इसलिए सरकार का यह अत्यन्त पवित्र आर्थिक कर्तव्य है कि वह रुपये का मूल्य स्थिर रक्खे । किन्तु सरकारें रुपये के मूल्य के साथ खिलवाड़ कर सकती है, इसलिए यह जरूरी है कि उनमें ऐसे आदमी हो जो ईमानदार हों और रुपये को भली-भांति समझते हों।

आजकल दुनिया में एक भी ऐसी सरकार नहीं है, जो इस मामले में पूरी ईमानदार हो। कम या अधिक सभी सरकारें कागज़ी नोट जारी करके अपना काम चलाती हैं। कुछ लोग, जो अपने-आपको अर्थ-विशेपज्ञ मानते है, समझते हैं कि अधिक मात्रा में रुपया जारी करके उद्योगों के लिए पूँजी सुलभ की जा सकती है अथवा देश की दौलत बढ़ाई जा सकती है। किन्तु यह इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि एक रुपये को दो रुपया मान कर देश के धनी होने का स्वप्न देखा जाय।

अब यदि रुपये का मूल्य एक ही सतह पर स्थिर रखना आवश्यक हो तो यह सवाल पैदा होता है कि वह सतह क्या हो? मौजूदा सतह ही वह उचित सतह हो सकती है, किन्तु यदि वह बहुत घटी या बढ़ी हो तो घटा-बढ़ी के पहलेवाली सतह क़ायम रक्खी जा सकती है। इसके लिए यह जरूरी है कि सिक्कों और नोटों को उपयोगी चीज़ें माना जाय और उन्हें इतनी काफी संख्या में जारी किया जाय कि लोगों की