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उत्पत्ति के साधनों का राष्ट्रीयकरण

उत्पत्ति के साधनों का राष्ट्रीयकरण १६५ जमीन, खानों, रेलों और अन्य सव उद्योगों का, जो इस समय पूंजीपतियों की सम्पत्ति है, विना क्षतिपूर्ति किये राष्ट्रीयकरण हो सकता है। किन्तु इसका यह परिणाम होगा कि पूँजीपति कंगाल हो जायेंगे और अपने बहुसंख्यक श्राश्रितों को कोई काम न दे सकेंगे। यह दूसरा सवाल है कि पूंजीपति जो काम देते हैं वह निरुपयोगी काम है। किन्तु उस काम के बदले जो रुपया मिलता है, उससे धनिकों के आश्रितों जीवन-निर्वाह करने में कोई बाधा पैदा नहीं होती। का विद्रोह श्रतः पूंजीपतियों के निर्धन होजाने पर उनके याश्रितों यानी नौकर-चाकरों के लिए हमारे पास उत्पादक काम न हो तो उन्हें भूखों मरना होगा या चोरी और विद्रोह करना होगा । यदि उनकी संख्या अधिक हुई तो वे सरकार को उखाड़ कर फेंक दे सकते हैं, और वास्तव में उनकी संख्या कम नहीं है । उनके बल पर ही आज कई पैलेवाले म्यूनिसिपल्टियों और धारा-समानों के लिए चुने जाते हैं। यदि वे उनका समर्थन करते हैं तो यह स्वाभाविक है, क्योंकि श्रमजीवियों की लूट का कुछ हिस्सा अपने मालिकों द्वारा उन्हें भी मिल जाता है। इसके अलावा खानों, रेलों और बैंको को जब जब्त किया जायगा तो उनके शेयरों से जो आमदनी हिस्सेदारों को होती थी वह सरकार को होने लगेगी। दूसरे शब्दों में हिस्सेदारों की क्रयशक्ति सरकार के हाथ में चली जायगी। नतीजा यह होगा कि हिस्सेदारों की क्रयशक्ति पर निर्भर हर दुकान और कारखाने को चन्द रना पड़ेगा और उनमें काम करने वाले सव कर्मचारियों को छुट्टी दे देनी पड़ेगी। हिस्सेदारों की संचय करने की शक्ति का अर्थ है नये उद्योग जारी करने और पुराने उद्योगों के विस्तार के लिए आवश्यक पूजी देने की शक्ति । यह शक्ति भी सरकार के हाथ में चली जायगी । इस प्रकार जो प्रचुर धनराशि सरकार के पास जमा होगी, उसका वह क्या करेगी? यदि वह उसको केवल तहखानों में डाल कर बैठ जाय तो उसका अधिकांश भाग नष्ट हो जायगा और साथ ही काम