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समाजवाद : पूँजीवाद


हो और काफी से भी कुछ अधिक हो।

किन्तु फिर वही पुराना सवाल उठता है कि जीवन के लिए कितना काफ़ी होगा? यह ऐसा सवाल है कि जिसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम किस प्रकार का जीवन बिताना चाहते हैं। जो भिखारी जीवन के लिए काफ़ी होगा, वही अत्यन्त सभ्य जीवन के लिए काफी न होगा। सम्य जीवन के साथ व्यक्तिगत शौक तथा गायन-कला, साहित्य, धर्म, विज्ञान और तत्वज्ञान का वातावरण लगा रहता है। इन चीज़ों के विषय में हम कभी भी नहीं कह सकते कि बस, काफी हो गया। कुछ-न-कुछ नए आविष्कार का और कुछ-न-कुछ पुरानी व्यवस्था में सुधार करने का काम सदा रहता ही है। संक्षेप में, किसी विशेष समय रोटी या जूते जैसी चीज़ों की भले ही सीमा निर्धारित की जा सके, किन्तु सभ्यता की कोई सीमा नहीं बाँधी जा सकती। यदि ग़रीब होने का यह अर्थ हो कि हम में अच्छी वस्तुओं की चाह बनी रहे। यह कहना कठिन है कि इसके अलावा और कौन-सी भावना ग़रीबी का परिचय दे सकती है। तो हमारे पास चाहे जितना रुपया क्यों न हो, हमें अपने आपको सदा ग़रीब ही समझना चाहिए। कारण, हमारे पास यह या वह चीज़ काफी हो सकती है, किन्तु सभी चीज़ें कभी काफी परिमाण में न होंगी। फल-स्वरूप कुछ लोगों को काफ़ी और कुछ को काफ़ी से अधिक देने का विचार किया जाएगा तो वह योजना असफल होगी। कारण, कोई भी सन्तुष्ट न हो पायगा और सारा रुपया ख़र्च हो जाएगा। हरएक आदमी शौकीन लोगों का एक उडाऊ वर्ग स्थापित करने और उसको क़ायम रखने के उद्देश्य से अधिकाधिक मांगता ही रहेगा। अन्त में यह वर्ग भी अपने दरिद्रतर पड़ोसियों की अपेक्षा अधिक असन्तुष्ट हो जायगा।

अतः सम्पत्ति-विभाजन की साम्यवादी योजना के अनुसार बराबर- बराबर बँटने पर हरएक को जो कुछ मिलेगा वही हम में से हरएक के लिए काफी होगा। हम वही बराबरी का हिस्सा चाहते हैं, न निर्धनता चाहते हैं और न धनिकता।