पृष्ठ:समाजवाद पूंजीवाद.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

असमान धाय के दुष्परिणाम नगण्य लाभों को तो आसानी से समझ लेते हैं, किन्तु उसके वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ पाते । जो श्रादमी धनिकों के घरों में नौकर रहते हैं वे उन्हें दयालु और सत्पुरुष समझते हैं। क्योंकि वे अपने धनी मालिकों से कमी-कभी वेतन के अलावा कुछ इनाम भी पाते रहते हैं। कोई धनी यश की श्राकांक्षा से यदि अपने पड़ोसी मध्यमवर्ग के लोगों को कोई भोज दे देता है, या उनके लिए कोई पुस्तकालय खोल देता है, या कुंधा- यावडी बनवा देता है, या एक धर्मशाला खडी कर देता है, या किसी स्कृल या अन्य सार्वजनिक संस्था के लिए कुछ धन दे देता है तो धनिकों की उस हदयहीनता, अनुदारता और शोपक-वृत्ति (जिनसे कि धनी धनी बनते हैं) अपरिचित लोग कहते हैं कि वे बड़े दयालु, है, वडे दानी हैं, बड़े उदार है ! धनिकों के राग-रंगों से शहरों और कस्बों में जो चुहल होती है लोग उसमें यम्बुशी शामिल होने हैं और जगह-जगह उसकी चर्चा करते हैं। वहां धनिकों का प्रचुर व्यय सदा लोकप्रिय होता है। धनी घरानों में काम करने वाले नौकर अपने मालिकों की इन फ़िज़लनर्चियों पर और उनके यहां अपने नौकर होने पर गर्व करते हैं और वेचारे भोले- भाले गरीय लोग उनके इन राग-रंगों की चकाचौंध में असलियत को देख नहीं पाते । वे नहीं समझ सकते कि इन धनिकों की फिजूलखर्ची और शौकीनी को पूरा करने के लिए उनमें से कितना ही के मुंह के कौर चीन लिए जाते हैं और उनके शरीरों पर केचिण्डे उतार लिए जाते हैं । नियम यह है कि जबतक सब लोगों को मनुष्योचित खाना न मिल जाय तब- तक कोई इस तरह भोजन बर्बाद न करे और जबतक सबके शरीर न ढंक जाएं तबतक कोई हीरे, मोती और जेवर न पहिने । धनी लोग अपने को अन्य लोगों से सुखी देख कर सन्तोप मान सकते हैं, किन्तु वे यह नहीं कह सकते कि गरीबों के दुखों के असहा हो जाने पर उनके हृदयों की श्राग कमी नहीं धधक उठेगी। हमारे इस नीति के साथ चिपटे रहने का एक कारण यह भी है कि हम किसी मौके से धनी बन जाने के स्वप्न देखा करते हैं और सोचते हैं कि तब हम भी ऐसा ही करेंगे। हम अपने एक अनिश्चित लाभ की