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समालोचना-समुच्चय

और पूर्वी हिन्दी बोलनेवालों की संख्या आपने अलग अलग दिखाई है। यह भेद कृत्रिम है। प्रान्तिकता के कारण कोई भाषा और की और नहीं हो जाती। अतएव यदि इन दोनों के बोलनेवालों की संख्या भी मिला दी जाय तो हिन्दी-भाषा-भाषी जनों की संख्या कोई १० करोड़ हो जाय। इस दशा में हिन्दी को छोड कर और कौन भाषा ऐसी है जो राष्ट्र-भाषा होने की योग्यता रखती हो?

आशा है, प्रस्तुत पुस्तक के अगले संस्करण में, सम्पादक महाशय इस सम्बन्ध में यदि कुछ लिखेंगे तो सोच समझ कर लिखेंगे।

[ नवम्बर १९१६ ]
 

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