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पराक्रमनी-प्रसाद

अपने तीनों नाटक कुमार-सम्भव लिखने के बाद बनाये। नाटकों में मालविकाग्निमित्र पहले, विक्रमोर्वशीय उसके बाद और अभिज्ञान-शाकुन्तल सब से पीछे बनाया। इन सिद्धान्तों का भी दूढ़ीकरण उन्होंने अपने छन्दःप्रयोग वाली कसौटी पर कस कर किया है। भास के नाटकों से लेकर भवभूति के नाटकों तक में प्रयुक्त छन्दों की तालिका जो उन्होंने दी है उसे देख कर तो उनके सिद्धान्त की सत्यता आँखों के सामने प्रत्यक्ष सी हो जाती है। भास के प्रतिज्ञा-यौगन्धरायण और स्वप्नवासवदत्त में पहले ही पहल गाथा का दर्शन होता है; पर प्राकृत-कविता का सम्पूर्ण अभाव देखा जाता है। इससे सूचित होता है कि कालिदास के पूर्ववर्ती भास के समय में प्राकृत-कविता का प्रचार बहुत ही कम था, अथवा बिलकुल ही न था। प्राकृतभाषायें उस समय बन रही थीं। कालिदास के समय में प्राकृत में भी कविता होने लगी थी, क्योंकि कालिदास के नाटकों में वैसी कविता पाई जाती है। इस कसौटी से भी कालिदास की प्राचीनता सिद्ध होती है।

ध्रुव महोदय की राय है कि रघुवंश का थोड़ा बहुत अन्तिम अंश ज़रूर नष्ट हो गया है। जहाँ पर वह समाप्त होता है वहीं कालिदास ने उसे न छोड़ा होगा। कुमार-सम्भव के पहले आठ ही सर्ग आप कालिदास के लिखे हुए बताते हैं। पीछे के सर्ग किसी और ने लिख कर जोड़ दिये हैं। यह बात उन नौ सर्गों की कविता की शिथिलता तथा अन्य दोषों से साबित होती है। जिन छन्दों का प्रयोग कालिदास ने समग्र रघुवंश और कुमार-सम्भव के पहले आठ सर्गों में व्यापक तथा अव्यापक रूप में नहीं किया वे छन्द भी कुमार-सम्भव के पिछले नौ सर्गों में प्रयुक्त हैं। इससे भी यह सूचित होता है कि वे सर्ग कालिदास की कृति नहीं। इसी से शायद मल्लिनाथ ने उन सर्गों की टीका नहीं लिखी।