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उर्दू-शतक

दाग़ मुदाम गुलों के जो खाये
तो सीना बनारस का कमख्वाब है।
वस्ल की लज्जत ऐसी उठाई
हुआ मजनू का हमें भी खिताब है॥
बेकली सौंप गया गुलरू मुझे
हाय ख़याल ख़ुरिश है न ख़्वाब है।
कल नहीं पड़ती किसी करवट,
न किसी पहलू, मुझे ऐसा अज़ाब है॥६६॥
हुस्न के बुर्ज पै है ख़ुरशीद
घटा से घिरा हटा क्यों नहीं देते?
संबुल में शबनम उलझी है
तपाक से भी तपा क्यों नहीं देते?
आशिक़ ज़ार अलील खड़े हैं
मसीह बने दवा क्यों नहीं देते?
चेहरे से जुल्फ हटा कर रात को
दिन करके दिखा क्यों नहीं देते?

यह कविता अच्छी है या बुरी, इसके निर्णयकर्ता केवल सहृदय जन ही हो सकते हैं। अन्य नहीं। इसके अनुप्रास, इसके भाव, इसकी अक्षर-मैत्री सभी प्रशंसनीय हैं।

[जनवरी १९०७]