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समालोचना-समुच्चय

इस कमिटी ने भाषा के सम्बन्ध में पहले तो यह निश्चय किया कि तीसरे और चौथे दरजे की रीडरों की भाषा बोल चाल की साधारण भाषा हो। हाँ, यदि कहीं संस्कृत या फारसी के बहुत ही अच्छे और भाषा की दृष्टि से महत्वपूर्ण मुहावरे या शब्द रखना मुनासिब समझा जाय, और यदि वे सीधे सादे हो, तो वे भी रख लिये जाँय। पर उस कमिटी के उर्दू-पक्षपाती मेम्बरों ने इस बात पर सख़्त एतराज किया। उनके एतराज़ की मात्रा बढ़ने लगी। संस्कृत का नाम उनके लिए हौवा हो गया। हिन्दी के पक्षपाती फ़ारसी सीखें; अरबी सीखें; इन भाषाओं की बड़ी बड़ी परीक्षायें पास करें; उर्दू और फारसी में किताबें भी लिखें और अख़बार भी निकालें। उर्दू के पक्षपाती हमारे भाई बहुत खुश! परन्तु यदि उनसे संस्कृत का एक शब्द भी उच्चारण करने के लिए कहा जाय तो वे बेहद नाराज़! संस्कृत पढ़ना तो दूर रहा, उन्हें संस्कृत का नाम तक सुनना गवारा नहीं। अँगरेज़, फरासीसी, जर्मन, अमेरिकन हिन्दुस्तान से हज़ारों कोस दूर बैठे हुए, संस्कृत सीखते हैं। परन्तु जिस हिन्दुस्तान में हमारे ये उर्दू के पक्षपाती भाई पाठ सौ वर्ष से रहते हैं उसकी संस्कृत भाषा का नाम सुनते ही उनके तलवों की आग मस्तक तक पहुँचती है। भला इस तअस्सुब का भी कहीं ठिकाना है। ख़ैर।

खान-बहादुर सैय्यद मुहम्मद हादी भी इस कमिटी के मेम्बर थे। उन्होंने कमिटी के इस विचार या मन्तव्य को ज़रा भी पसन्द न किया। आपने अलग एक नोट लिखा। उसमें आपने बड़ी बड़ी आपत्तियाँ उठाई। फल यह हुआ कि कमिटी को अपना पहला मन्तव्य रद करना पड़ा। तब मताधिक्य से यह निश्चय हुआ कि प्राइमरी दरजों की रीडरों की भाषा वही हो जिसे इस सूबे के पढ़े लिखे आदमी बोलते हैं। अर्थात् वही जो चार पाँच साल पहले