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समालोचना-समुच्चय

लेखकों ने आचार्य और महाकवि की पदवियों का भी स्पष्टीकरण नहीं किया। उन्होंने अपनी इस पुस्तक में इन पदवियों का बाँट-चूँट बड़ी ही उदारता से किया है। अतएव इस विषय में भी वही एतराज़ किया जा सकता है जो श्रेणी-विभाग के विषय में ऊपर किया गया है। अलङ्कारशास्त्र में महाकाव्य के जो लक्षण, संस्कृत में, निर्दिष्ट हुए हैं उन लक्षणों से अन्वित काव्य लिखनेवालों को लेखक भी यदि महाकवि समझते हों तो वे लक्षण उनके सभी नवरत्न-कवियों के काव्यों में नहीं घटित होते।

होमर और बर्जिल, शेक्सपियर और मिल्टन, व्यास और वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति का अपने अपने साहित्य में जो स्थान है सूर और तुलसी का प्रायः वही स्थान हिन्दी में है। अथवा यह कहना चाहिए कि सूर और तुलसी हिन्दी में प्रायः उसी आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं जिस दृष्टि से कि ये उल्लिखित कवि संस्कृत और अँगरेजी आदि भाषाओं में देखे जाते हैं। जिन सूर और तुलसी के ग्रन्थों की पूजा झोपड़ियों से लेकर राज-प्रसादों तक में होती है, जिनके कविता-कुसुम को, छोटे से लेकर बड़े तक, सादर अपने सिर पर धारण करते हैं। जिनकी उच्च-भाव-पूर्ण उक्तियाँ पापियों को पुण्यात्मा और अधार्मिकों को धार्मिक बनाने का सामर्थ्य रखती हैं; जिनके सदुपदेश और सरस पद्य सुन कर दुराचारी भी सदाचारी हो जाते हैं और पाषाण-हृदयों के भी हृदय पिघल उठते हैं; उन्हीं से देवकवि को रत्ती भर भी कम न समझना कदापि युक्तिसङ्गत नहीं माना जा सकता। जिसने उच्च भावों का उद्बोधन नहीं किया; जिसने समाज, देश या धर्म को अपनी कविता द्वारा विशेष लाभ नहीं पहुँचाया; जिसने मानव-चरित्र को उन्नत करने योग्य सामग्री से अपने काव्यों को अलंकृत नहीं किया---वह भी यदि महाकवि या कविरत्न माना जा सकेगा तो