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गायकवाड़ की प्राच्य-पुस्तक-माला


और भी दस बारह ग्रन्थों के नाम आपने बताये हैं जिनके विषय में अभी सन्देह है। सम्भव है वे भी सभी या उनमें से कुछ आनन्दगिरि ही के लिखे हुए हों।

प्रस्तुत पुस्तक को अन्नंभट्ट का रचित वह छोटा तर्क-संग्रह न समझना चाहिए जो काशी की प्रथमा परीक्षा का पाठ्य-ग्रंथ है। आनन्दगिरि का तर्क-संग्रह बड़ा गहन ग्रंथ है। उसमें लेखक ने वैशेषिक-दर्शन के सिद्धान्तों का खण्डन, बड़ी योग्यता से, किया है। उन्होंने भेदवाद या द्वैत-भाव मानने वालों की उक्तियों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। आनन्दगिरि बड़े उद्भट तार्किक थे। आपने अद्वैत-अभेदवाद या वेदान्त का समर्थन अखण्डनीय युक्तियों से किया है।

इस पुस्तक की केवल एक ही प्रति पाटन के एक ग्रंथ-भाण्डार से प्राप्त हुई थी। उसी के आधार पर इसका सम्पादन हुआ है। जो लोग संस्कृत नहीं जानते वे भी इसके आरम्भ के २२ पृष्ठव्यापी उपोद्घात से इस ग्रंथ तथा इसके कर्ता के सम्बन्ध की मुख्य मुख्य बातें जान सकते हैं।

राष्ट्रौढ वंश―महाकाव्य―राष्ट्रौढ-शब्द हिन्दी “राठौड़" का संस्कृत-रूप है। अर्थात् इस काव्य में राठोड़-वंश का वर्णन है। इसके कर्ता का नाम रुद्र कवि है। वह दाक्षिणात्य था। उसके पिता का नाम अनन्त और पितामह का केशव था। मयूरगिरि के राजा नारायणशाह और उसके पुत्र प्रतापशाह के समय में वह विद्यमान था―उन्हीं का आश्रित था। इस काव्य की रचना उसने १५१८ शक (१५९६ ईसवी) में की। इस कवि के एक और काव्य का भी पता लगा है। उसका नाम है जहाँगीरशाह-चरित। लक्ष्मण पण्डित नाम के एक आदमी से राठोड़-वंश का वर्णन सुन कर उसने इस महाकाव्य की रचना की है। उसने लिखा है―