पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
भूमिका।


प्रति दिन के व्यवहार में हम लोग जो बातें करते हैं उनका सम्पत्तिशास्त्र से घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि बिना सम्पत्तिशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किये ये सब बातें नहीं हो सकतीं। हो ज़रूर सकती हैं, पर उन में भूलें होने का डर रहता है। शास्त्रीय ज्ञान की बदौलत भूलें नहीं होतीं और होती भी हैं तो बहुत कम। शास्त्रज्ञान होने से सारे व्यावहारिक काम, चाहे वे राजकीय हों चाहे सम्पत्तिविषयक, अच्छी तरह हो सकते हैं। उनसे हानि की संभावना कम रहती है। चाहे जो काम हो, वह निर्भ्रान्त तभी हो सकेगा जब उसका कार्य्य-कारण-भाव और उत्पत्ति अच्छी तरह समझ में आ जायगा। इसी से शास्त्र का अध्ययन आवश्यक समझा जाता है।

अनेक प्रकार के व्यवहारों से जो अनुभव हुए हैं—जो तजरुबे हुए हैं—उन्हीं के आधार पर सम्पत्तिशास्त्र के सिद्धान्त निश्चित किये गये हैं। शास्त्र की दृष्टि से ये सिद्धान्त सब सच हैं। तथापि, विशेष प्रसङ्ग, आने पर, किसी विशेष स्थिति का विचार जब इन सिद्धान्तों के अनुसार करना होता है तब और भी अनेक बातों की तरफ ध्यान देना पड़ता है। देश-स्थिति, समाज-स्थिति, राज्य-प्रणाली आदि का विचार करके सम्पत्तिशास्त्र के सिद्धान्त प्रयोग में लाये जाते हैं। दूर तक विचार किये बिना इस शास्त्र के सिद्धान्तों के प्रयेाग से कभी कभी भूलें होने की संभावना रहती है। परन्तु ऐसी भूल से शास्त्रीय नियम भ्रान्तिपूर्ण नहीं माने जा सकते। व्यवहार में नियमों के अनुसार अनुभव न होने के कारण उपस्थित हो जाते हैं। उनका पता लगाने से मालूम हो जाता है कि ये नियमानुसार अनुभव नहीं हुआ? कहाँ कौन सी भूल हुई? अतएव शास्त्र की अखण्डनीयता में बाधा नहीं आती। शास्त्र का काम केवल सत्य-विवेचन है। उसमें यदि अन्तर आ जाय तो शास्त्र को दोष न देकर उस अन्तर का कारण ढ़ूँढ़ना चाहिए। फिर सम्पत्तिशास्त्र एक नया शास्त्र है। उसकी उत्पत्ति हुए अभी दो ही तीन सौ वर्ष हुए। अभी उसे परिपक्व अवस्था नहीं प्राप्त हुई। जैसे जैसे व्यवहारिक अनुभव बढ़ता जाता है तैसे तैसे इसके सिद्धान्तों में परिवर्तन हेाता जाता है। इस के किसी सिद्धान्त के अनुसार यदि कोई बात होती न देख पड़े तो आश्चर्य्य