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पदार्थों की कीमत ।

से उसकी फ़सल मारी गई और सब कहीं मिलाकर केवल ७० लाख मन गेहूँ हुआ । इस दशा में गेहूँ की दूसरी फ़सल कटने तक इससे अधिक उसका संग्रह न हो सकेगा । परन्तु हर आदमो और हर देश मामूली तौर पर गेहूँ की पैदावार बढ़ा सकता है। हाँ वर्च उसे ज्यादह करना पड़ेगा। याद- रखिए हम अधर्पण की बात नहीं कहते । हम परती जमीन में गेहूँ बोकर, और जो जमीन जोती जाती है उसे खाद आदि से उर्बरा बनाकर, पैदावार बढ़ाने की बात कह रहे हैं। इन तरकीबों से पैदावार बढ़ जायगी ज़रूर,. पर खर्च करना पड़ेगा। जितना ही अधिक वर्च किया जायगा उतना ही अधिक गेहूँ पैदा होगा और उतना ही अधिक उसका संग्रह भी बढ़ेगा। इस खर्च का असर गेहूँ की कीमत पर जरूर पड़ेगा।

खानि से जो चीज़ निकलती है उनका भी यही हाल है। जितनाहीं अधिक खर्च उनके निकालने में किया जायगा उतनी ही अधिक वे ठंगी और उतना ही अधिक उनका संग्रह भी बढ़ेगा । इन चीज़ों का भी संग्रह सीमावद्ध होता है। जब तक कोई नई खान नहीं निकलती तब तक इनका संग्रह पूर्ववत् ही रहता है।

हिन्दुस्तान कपि-प्रधान देश है। अतएव अधिक वर्च करके खेती की पैदावार बढ़ाने के विषय में इस देश की बातों का विचार करना ज़रूरी है।

ईस्ट इंडिया कम्पनी की प्रभुता के पहले, और उसके कुछ समय बाद तक भी, इस देश में उद्योग-धन्धं की बड़ी अधिकता थी। प्रायः सब तरह का माल तैयार होता था और देश देशान्तरों को जाता था। पर कम्पनी ने अपनी शासन-शक्ति के पल से युक्तिपूर्वक उसका सर्वनाश कर दिया । यहाँ के कला-कौशल और व्यापार-वाणिय को तरफ गवर्नमेंट का भी यथेष्ट ध्यान नहीं । इससे देश का निर्वाह अब प्रायः एक मात्र खेती की पैदावार पर रह गया है । सैकड़ों वर्ष से यह हाल है । खेतो हो से लोगों की जीविका चलती है। इस कारण अच्छी जमीन बहुत कम पड़ी रह गई है। सव जुत गई है । उधर आवादो भी बढ़ रही है । खाने के लिए अन्न चाहिए सब को। अतएव या तो पड़ी हुई अनुर्चरा-धुरी-जमीन जोतो बोई जाय, या निःसत्व हुई पुरानी ज़मीम खाद इत्यादिक डालकर अच्छी बनाई जाय । खर्च दोनों बातों में ज़रूर बढ़ेगा। बिना खर्च आमदनी न बढ़ेगी। परन्तु