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रुपये की कीमत ।


तैयारी में अधिक ग्यच करने से इनका संग्रह बढ़ सकता है। पर जिस अन्दाज़ से खर्च बढ़ता है उसी अन्दाज ले संग्रह या ग्रामदनी नहीं बढ़ती 1 अर्थात् जितना खर्च बढ़ जाता है उतनी आमदनी नहीं बढ़ती ।

कलों की मदद से जो चीजें तैयार होती हैं उनका संग्रह मनमाना चढ़ाया जा सकता है। उसे सीमारहित कहना चाहिए । ऐसो चीज़ों की तयारी में जितना ही अधिक खर्च किया जाता है उतना ही अधिक संग्राह भी बढ़ता है। अतएव इस देश के लिए ऐसी चीजें तैयार करने की बड़ी ज़रूरत है। ऐसी चीजों का भी निर्स खप और संग्रह के समीकरण से, उत्पादन-व्यय के कुछ इधर या उधर, निश्चित होता है।

पाँचवा परिच्छेद ।
रुपये की कीमत

हम लोगों को हमेशा चीज़ों ही की कीमत लेनी देनी पड़ती है। इस लिए रुपये की कीमत का नाम सुनकर यदि किसी को आश्चर्य हो तो हो सकता है। रूपये, पैसे या सिक्के की कीमत से मतलब उसके अदला-बदल के सामर्थ्य से है । रुपया देने से जब पार चीजें बहुत मिलती हैं, अर्थात् वे साली विकतो हैं, तब रुपये की कीमत अधिक होती है। इसी तरह जब उसके बदले पौर चीजें थोड़ी मिलती हैं, अर्थात् वे महँगी बिकती हैं, तब रुपये की कीमत कम होती है। अतएव रुपये में माल लेने की जो शक्ति है बही उसका क़ीमत है । रुपये की कीमत और अन्यान्य चीज़ों को कीमत एक इसरो से विपरीत भाव रखती हैं । अर्थात् जब एक की कीमत घटती है तब दूसरी की बढ़ती है और जब दूसरी की बढ़ती है तब पहली की कम हो जाती है। उनका सम्बन्ध तराजू के पल्लों की तरह है। अर्थात् एक ऊँचा होने से दूसरे को नोचे जानाही चाहिए ।

जब हम यह कहते हैं कि किसी चीज़ की आमदनी हुई है तब उससे यह अर्थ निकलता है कि वह बीज चदली जाने के लिए तैयार है । उसे देकर उसके बदले रूपया लेना, या उसे लेकर उसके बदले रूपया देना, माना रुपया खरीद करना या मोल लेना है । जब कोई चीज़ बेची जाती है