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कागजी रुपया।

है कि नोटों पर लिखी हुई रकम जब चाहेंगे मिल जायगी । इलीसे वे नोटों का रुपया हो समझते हैं और लेन देन में, विना जरा भी शङ्का या सोच- विचार के काम में लाते हैं। किसी किसी देश में बैंकों के भी नोट चलते हैं । पर इस देश में ऐसे नोटों का रबाज नहीं है । नोटों के प्रचार से बहुत सुभौता होता है। करोड़ों रुपये का लेन देन, बिना सोने चांदी के सिक्के का ध्यवहार किये ही. हो जाता है। जो राजा या जो बैंक नोट निकालता है उले इसका हमेशा खयाल रखना पड़ता है कि नोटों को कुल रकम के बरा- वर उसके पास सिक्के के रूप में द्रव्य है या नहीं। क्योंकि यदि सब लोग पकदम से अपने अपने नोट भुनाने पर आमादा हो जायें और नोट जारी करनेवाला सब का भुगतान न कर सके तो उसकी साख मारी जाय और बहुत बड़ी आफ़त का सामना करना पड़े

सभ्यता और शिक्षा की वृद्धि के साथ साथ नोटों के प्रचार और व्यव- हार की वृद्धि होती जाती है। बहुत सा रुपया साथ ले जाना बोझ मालूम होता है। घर में भी दस पाँच हजार रुपया रखने से बहुत जगह रुकती है। इससे लोग नोट रखना अधिक पसन्द करते हैं। पचास रुपये और उससे अपर के नोट खो जाये, चोरी जाय, जल जायँ या मगर किसी तरह ख़राब बायें तो रूपया डूबने का डर भी नहीं रहता। यदि उनका नम्बर मालूम हो तो लिखने पर गवर्नमेंट उत्तना रुपया अपने खजाने से दे देती है ।

जैसा हम कह चुके हैं, करन्सी नोटों को तरह चेक और हुंडी भो रुपये का काम देती हैं। जिन सभ्य और शिक्षित देशों में व्यापार बहुत होता है और हर रोज़ करोड़ों रुपये का भुगतान करना पड़ता है वहां धातु के सिक की अपेक्षा कागजी रुपया ही अधिक काम में लाया जाता है । लन्दन इस समय व्यापार का केन्द्र है । एक साय ने एक साल का लेखा लगाया है कि लन्दन में जितना कारोवार उस साल हुआ उसमें कितने का सोने का सिक्का, कितने के नोट और कितने का इंडो-पुर्जा काम में आया । यह हिसाब हम नीचे देते हैं। हिसाव १८८१ ईसयो का है:- सोने का सिक्का फ़ो सदी बैंक के नोट चक और हुंडी ९६.५७ 11 २.४८ 11 कुल १००.००

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