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लगान।


समाज की आदिम अवस्था में आदमी जितनी जमीन जोतना चाहते थे, जितनी लकड़ी काटना चाहते थे, जितनी मछली पकड़ना चाहते थे, जितनी धातु खान से खोदना चाहते थे, सब स्वतंत्रतापूर्वक कर सकते थे । उन्हें कोई रोकनेवाला न था। क्योंकि उस समय इस विशाल पृथ्वी का कोई भी अधिकारी न था। उस समय न शासन की कोई शंखला थी, न स्वामित्व का किसी को सथाल था। उस समय "जिसकी लाठी उसकी भैस" वाला सिद्धान्त सब कहीं चलता था। एक साल जो आदमो जमोन जीतता था, दूसरे लाल उससे अधिक बलवान आदमी उसे बेदखल कर सकता था । तात्पर्य यह कि शक्ति पर ही स्वामित्व अवलम्बित था। जो अधिक बलवान् और शक्तिशाली थे वे चिरकाल तक ज़मीन पर काविज्ञ रहते थे। इसी तरह धीरे धीरे जमीन पर एक एक व्यक्ति का अधिकार हो गया। इस अधिकार को लोग मानने लगे और जिस ज़मीन पर जिसका अधिकार था वह उसी का स्वामी समझा जाने लगा ।क्रम क्रम से जनसंध्या की वृद्धि होती गई। इससे अधिक जमीन की चाह । फल यह हुआ कि जिनके पास मतलब से अधिक ज़मीन थी वे उसका कुछ अंश औरों को देकर उसके बदले रुपया या जिन्स लेने लगे । यही से लगान की प्रथा चली ।

पुराने जमाने में, हिन्दुस्तान में, ज़मीन पर राजा का स्वामित्व न था। हर आदमी अपनी अपनी जमीन का मालिक था। राजा उससे सिर्फ उसको जमोन को पैदावार का छटा हिस्सा ले लिया करता था । बस राजा का सिर्फ इतनाही हकथा । यह एक प्रकार का कर था, जमीन का लगान नहीं । यह इस लिए लिया जाता था जिसमें उसके खर्च से राजा फ़ौज आदि रख सके और अपनी प्रजा के जान-माल की रक्षा कर सके। परन्तु राज्य क्रान्ति के कारण. पुरानो बस्तु-स्थिति इस समय जिलकुलही बदल गई है। अब जामीन को मालिक गवर्नमेंट बन गई है। वह जमीन का लगान लेती है और लोगों को लाचार होकर देना पड़ता है। पर इसे प्रजा की रक्षा के लिए लगान के रूप में कर न समझिए । यह रक्षण-कर नहीं है; यह ज़मीन ओतने जमीन को काम में लाने का बदला है। अथषा यों कहिए कि लगान नहीं यह एक प्रकार का किराया है। सरकारी जमीन, सरकारोज़मोन पर को स्नान, सरकारी जमीन पर के तालाब बिना किराये-बिना भाड़े के नहीं मिलते । इसी भाड़े-इसी किराये इसी कर का नाम लगान है । .