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सम्पत्ति-शास्त्र।

कौन सी जमीन ग्यत्ती के लिए सब से निकृष्ठ है, इसका कोई पका नियम नहीं बनाया जा सकता : समय, मौका पार देश-स्थिति के अनुसार बेती की सब से निकट जमीन जुदा जुदा तरह की होती है। जमीन की अन्तिम निकृष्टता का निश्चय अनाज की तात्कालिक कीमत पर अवलम्बित रहता है। पयोंकि ऐसो जमीन से उत्पन्न दुई उपज का कीमत उसके उत्पन्न करने के चर्च के बराबर होनी चाहिए । अनाज सस्ता होने से निकट जमीन की उपज में जो कुर्च पड़ता है या वसूल नहीं होता। इससे उसे कोई नहीं जोतता। बाद पड़ी रह जाती है। जैसे जैले अनाज सस्ता होना जाता है वैसेही चसे निकृष्ट जमीन पड़ी रहनी जानी है और एक एक दरजा ऊपर की जमीन ग्वेनी की सन से अधिक निकृष्ट जमीन की सीमा के भीतर आती जाती है। इसीतरह जैसे जैसे, अनाज मंहगा होता जाता है वैसेदी से नेतो की सब से अधिक निधष्ट जमीन दरजें बदर नीचे उतरती जाती है... अर्थात् निकृष्टत्तर जमीन जुनती चली जाती है। प्रत्योकि अनाज मंहगा होने से कम उपज वाली जमीन जोतने से भी फ़ायदा होता है । अनपव इससे यह सिद्धान्त निकला कि अनाज सस्ता होने से निहाए जमीन की मर्यादा नीचे को उत्तरती है और मंहगा होने से ऊपर की चढ़ता है।

प्रत्येक देश में लगान का निर्ष प्रायः जुदा जुदा होता है। इसका कारण या है कि सब देशों की स्थिति एक सी नहीं होती। बड़े अफ़सोस की बात है, हमारे देश के जमींदार और किसान जमीन से सम्बन्ध रखने वाली बातमी बातों से अनभिज्ञ हैं। खेती करने वाले यही नहीं जानते कि किस प्रान्त या किस जिले की जमीन जोतने में कितना सुभोता है, और यदि जानते भी है तो वहां जाकर किसानी करने के लिए आवाद नहीं होते ज़मीदारों को भी इस बात को ग्यवर नहीं कि हमारी जमीन में क्या गुण-दोप है। वे जमीन को उपज बढ़ाने को यर्थन चेला नहीं करने । जो कुछ लगान उन्हें मिल जाता है. या जितना अनाज उनकी जमीन में पैदा होता है, उसी से वे सन्तुष्ट हो जाते हैं । रही गवर्नमेंट की बात, सो उसे इस बात की वाहुत कम परवा है कि जमीन का उपजाऊ पन कम हो रहा है या अधिक, और यदि कम हो रहा है तो उसे बढ़ाने के लिए क्या करना चाहिए। उसे सिर्फ अपनी मालगुज़ारों से मतलब । इन अमावस्थानों के कारण किसानों, और जमीदारों को बड़ी हानि पहुँचती है। यदि देश में शिक्षा का अधिक