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सम्पत्ति-शास्त्र।

और जमादार से है, और किसी से नहीं । खेती की पैदावार मोल लेनेवालों से उसका जरा भो सम्बन्ध नहीं। अगर ज़मीदार लगान लेना छोड़ भी दे नो भी अनाज या खेती की प्रार, कोई पैदावार सस्ती न होगी। इस दशा काश्तकार लगान को अपने घर रखेगा प्रार. अनाज को बाजार भाव से बनेगा । लगान नहीं देना पड़ा, इसलिए वह उसे सस्ता मधेचेगा । जब वह बाजार भाव से अनाज घेच सकेगा तब अपने खेत में काम करनेवालों को क्यों जियादह मजदूरी देगा और क्यों लगाम की जिन्स को कम कीमत एर पंचकर और लोगों को फायदा पहुंचावेगा? लगान माफ़ होने से मनुष्य- संख्या कम नहीं होती। और मनुष्य संख्या कम न होने से अनाज की मांग पूर्ववत् बनी रहती है। उसी मांग के अनुसार अनाज का भाघ निश्चित होता है । लगान न लगन से बेतो की पैदावार के निर्व पर कुछ भी असर नहीं पड़ता।

साधारगा नियम यह है कि जिस पैदावार का भाव सब से अधिक महंगा होना ई-अर्थान् परता लगाने पर जो उपज मार सब उपजों से अधिक महंगी पड़ती है-उसीके अनुसार उस तरह की सारी पदा- वार का भाव निश्चित होता है । इसी बात को यदि दूसरे शब्दों में कहें तो इस तरह कर सकन है कि निराष्ट्र मादा की पैदावार के हिसाब से जमीन की उपज का भाव हराया जाता है. अथवा यो कहिए कि वेती की जमीन की निए मर्यादा के घटने या बढ़ाने संपदाधार का भार घटता बढ़ता है। प्रत्येक देश की जमीन की निष्ट मर्यादा-

(१) उसकी अनाज की आवश्यकना, और

(२) उस आवश्यकता को पूर्ण करने के साधनों से निश्चित होती है।

उदाहरगा के लिए इंगलैंड में ग्वेती की ज़मीन तो थोड़ी है, पर मनुष्य- संख्या बहुत है। इस दशा में वहाँ वाले यदि चाहते तो निकृष्ट ज़मीन में भी खेती करते । ऐसा करने से ग्नेतीको मर्यादा घट जाती पार पदावार का भाव बढ़ जाता । पर उन्हें ऐसा नहीं किया। उन्होंने दूसरे देशों से अनाज मैंगा- कर अपनी आवश्यकता को पूर्ण कर लिया । इससे उस देश में खेती को पदाबार का भाव नहीं चढ़ने पाया। सारांश यह कि खेती की मर्यादा के घट जाने से पैदावार का निर्ब महँगा हो जाता है और बढ़जाने से सस्ता ।