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सम्पत्ति-शास्त्र।

चलाने के लिए सरकार को दी जाती है । किसी किसी की राय है कि सरकार खुद सम्पत्ति उत्पन्न करती है । यह नहरें निकालती है. सड़कें बनवाती है, पुल तैयार कराती है और और भी कितनेही सर्व-साधारण के लिए उपयोगी काम करती है । इन कामों में रुपया बर्च होता है-पूंजी लगती है । अतएव सम्पत्ति के वितरमा में सरकार को भी एक हिस्सा मिलना चाहिए। इसी हिस्से का नाम महसल या मालगुजारी है। परन्तु दूसरे पक्ष वाले इस बात को नहीं मानते । वे कहते है कि सरकार आर भी कितनं ही काम ऐसे करती है जो बिलकुल ही अनुत्पादक हैं । उदाहरण के लिए वह लड़ाकू जहाज़ पारः बड़ी वड़ो फौजें रखती है ! उसमें करोड़ों रुपया खर्च होता है। पर यह सिर्फ इस मतलब से नहीं खर्च किया जाता कि प्रजा को सुप मिले पार देश में शान्ति रहे । किन्तु इस मतलब से भी मर्च किया जाता है कि कोई प्रबल शत्रु अपने अधीन देश को छीन न ले । अथवा इस मतलच से पर्च किया जाता है कि राजा का महत्त्व पढ़े-उसकी प्रभुता पहले से अधिक होजाय-पार शाही घराने की शक्ति इतनी दुर्धर्ष हो उट कि कोई उस राज्यच्युत न कर सके । इस तरह का वर्च उत्पा- दक नहीं। इससे लगाई गई सम्पत्ति का बदला सम्पत्ति के रूप में कुछ भी नहीं मिलता। अतएच सरकार सम्पत्ति के वितरण में हिस्सा नहीं पा सकती। फिर एकवात पार भी है कि महसूल देना सम्पत्ति के विनिमय का कोई अंश नहीं । यह नहीं कि अपनो वृशी से कोई चीज़. सरकार का दी और कोई दूसरी चीज़ उसके बदले में लेली । अर्थात् प्रजा इस बात के लिए मजबूर की जाती है कि अपनी आमदनी में से कुछ न कुछ सम्पत्ति वह सर- कार का दे।

सच तो यह है कि दोनों पक्षों के समर्थकों का कहना ठीक है । पयोंकि जा महसूल या मालगुजारी सरकार को मिलती है वह एक हिसाव से सम्पत्ति के वितरण, मार एक हिसाब से सम्पत्ति के उपभाग से सम्बन्ध रखती है। अर्थात् दोनों बातें आपस में एक दूसरे से मिली हुई है। अत- एव सम्पत्ति के वितरण-प्रकरण में सरकारी मालगुजारी के विषय में विचार करना मौत नहीं कहा जा सकता ।

राजा का काम विमा कर लिए नहीं चल सकता । कर उसे जरूर ही- लेना चाहिए। यदि वह कर न लेगा तो प्रज्ञा की रक्षा गार प्रजा के आराम