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मालगुजारी।


है। सरकार का उसमें साझा नहीं। हाँ, जहाँ, सरकार प्रजा से और और कितनेही कर लेती है. ज़मीन पर भी वह ले सकती है। परन्तु हिसाब से । यह नहीं कि पैदावार का बहुत बड़ा हिस्सा सरकारही लेजाय और बचारे कासकार को पेट पालने के लाले पड़जायँ ।

शुरु शुरू में. जिस समय ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रभुत्व इस देश में था, जमीन की मालगुजारी बहुत अधिक ली जाती थी। उस समय कम्पनी इस देश को अपनी ज़मीदारी के तौर पर समझती थी और जहाँ तक प्रजा

से मालगुजारी निचोड़ सकती थी तहाँ तक निचोड़ने में उसे ज़रा भी दरेग न आता था । फल इसका बहुत ही बुरा हुआ । मालगुजारी बसूल न होने लगी, जमोन परती पाड़ो रहने लगी. कारतकार भूखों मरने" लगे । तव कम्पनी के अधिकारियों की आँखें घुलौं । उनके ग्वयाल में तब यह बात आई कि यह स्थिति हमारे लिए अच्छी नहीं 1 जर ज़मीन जोतीही न जायगी-जब प्रजा ही भूखों मर जायगी-तब हम मालगुजारो लगे किससे? उस समय लार्ड कार्नवालिस हिन्दुस्तान के गवर्नर जनरल थे ! यह १७९३ ईसबी की वान है। उन्होंने सोचा कि जब तक ज़मींदारों को यह निश्चय न गयपहादुर गश वटेश जोशी सम्पत्तिशान के उस्कृष्ट माता हैं। उन्होंने २६ जून १६०८ के 'टाइम्स श्राव इंडिया' में एक पत्र प्रकाशित किया है। उसमें उन्होंने इस बात को सप्रमागा सिद्ध किया है कि जमीन का मालिक सरकार नहीं, किन्तु किसान या जमीदार है। अतएव गवर्नमेंट जैसे प्रज्ञा की और आमदनी पर एक निश्चित कर लेता है 'सही जमीन की आमदनी पर भी लेना चाहिए । जमीन का लगान लेने का उसे अधिकार नहीं । गवयहादुर जोशीर में कोर्ट प्रान् साहाचटर्स की १७ दिसम्पर १८५६ ईसवी को चिड़ी और लाई निटन ने सेक्रेटी नाम् स्टेट को भेजा हुई ८ जून १८८० ईसयों की चिट्ठी से अवतरगा देकर इस बात को अच्छी तरह प्रमापित कर दिया है कि किसानी जमीन का सचा मालिफ है। अतएन उसे अपनी जमीन को पेचने रेहन बारमे का इख- तिया है। जिसके करने में ज़मौन हो उससे सिर्फ उस जमीन की आमदनी पर लगान के रूप में नहीं, किन्तु करके रूप में सरकार एक निश्चित रकम ने सकती है, लगान नहीं ले सकती । मेर की बात है, इन प्रमाणों के होते मी सरकार जमीन पर अपना स्वामित्व रद्द करने की चप्टा नहीं छोड़ती । सरकार का स्वामित्व मानने से मजदूरी, पूंजी और पूँजी के व्याज को छोड़ कर किसान या जमीदार का और कोई हक नहीं माना जा सकता । इन ग्लमों को छोड़ कर पाको जो कुछ पचे वट सभी सरकार का है। २६-७०८