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मालगुजारी।

हिस्से काइतकार या जमीदार को मिलें । यही ३७ हिस्से ज़मीन जोतने बोने आदि का फल समझा जाय । यह इतना भारी लगान-यह इतनी ज़ियादह मालगुजारी-देने में मजा असमर्थ हुई । तब गवर्नमेंट ने अपना हिस्सा घटा' कर ८३ से किया । जब उसके वसूल होने में भी कठिनाई होने लगी तब उसे और घटा कर ६६ कर दिया । परन्तु इससे भी काम न चला | अतएव लाचार होकर, १८५५ ईसवी में, सरकार ने अपना हिस्सा ५० किया । १८६४ ईसवी में यही नियम उसने इस देश के दक्षिणी प्रान्तों में भी प्रचलित कर दिया । अर्थात् बंगाल को छोड़ कर अन्यत्र सब कहीं उसने आमदनीका प्रायः आधा हिस्सा अपने लिए और आधा मजा के लिए रक्खा !, कल्पना कीजिए कि आपके पास एक बीघा जमीन है। उसमें १५ मन अनाज साल में पैदा हुआ 1 उसमें से ७ मन महाजन के सूद और मेहनत-मज़- दूरी के बदले गया । रह गया मन । उस ८ मन में ४ मन गवर्नमेंट ने लेलिया । बाक़ी सिर्फ ४ मन आपके हाथ लगा । अर्थात् एक बीघा ज़मोन जोतने बोने की जांफ़िशानी उठाने का फल आपको सिर्फ मन अनाज मिला और गवर्नमेंट ने कुछ भी न करके आधा वैटा लिया । वह उसने अपनी ज़मीन का किराया लिया । यह किराया इतना ज़ियादह है कि दुनिया के किसी सभ्य देश में इतना नहीं । यह वही बात हुई कि किसी की दुकान में बैठकर यदि १० हजार रुपया लगाकर कोई महाजनी करे और साल में ४ हजार उसे मुनाफा हो तो उसका आधा, अर्थात् दो हजार, दुकान के मालिक को देना पड़े !

सरकार को जो मालगुजारी दी जाती है वह रुपये के रूप में दी जाती है, अनाज के रूप में नहीं । परन्तु उसको शरह पैदावार का घरता लगा कर हो निश्चित की गई है। यह परता बन्दोबस्त के साल का लगाया हुआ है। पानी न.वरखने, या और किसी कारण से फसल खराब हो जाने से पैदा- चार जव कम होती है तब भी ज़मींदारों और काश्तकारों को प्रायः वही मालगुजारी देनी पड़ती है। कभी कभी दया कर के गवर्नमेंट मालगुजारी का कुछ अंश छोड़ भी देती है । परन्तु यह छूट, नुकसान के हिसाब से बहुधा कम ही होती है । अतएव दोनों सूरतों से सरकार ही फायदे में रहती है. प्रजा नहीं । पैदावार ठीक न होने से यदि कुछ लगान छोड़ दिया जाता है तोमो प्रजा को हानि ही रहती है, और नहीं छोड़ दिया जाता तो तो उसकी दुर्गति का ठिकाना हो नहीं रहता।

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