पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/१४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३०
सम्पत्ति-शास्त्र।

मालगुजारी फी शरद् ५० फीसदी होने से भी प्रजा को काफ़ी आमदनी नहीं होती। श्वेता की अमदनी से प्रजा का खर्च नहीं चलता। लार्ड कैनिंग और लॉर्ड लारेन्स नै प्रजा का पक्ष लेकर उसकी शिकायतें दूर करने को बहुत कुछ कोशिश की थी। पर कुछ न हुआ। मालगुजारी जितनी की उतनी ही रहीं। उसके के बाद जो गवर्नर जनरल भै और बड़े बड़े अफ़सर आये इन्होने प्रजा के सुखदुख की तरफ़ विशेष ध्यान न दिया। उलटा उन्होने ज़मीन की मालगुजारीं बढ़ाने की कोशिश की, घटाने की नहीं। ईस्ट इंडिया कम्पनी के ज़माने में मालगुजारी के सम्बन्ध में जो भूल हुई थी उन्हें दुरुस्त करने के इरादे में बहुत कुछ मालगुजारी घटाई भी गई। पर १८५८ इसवी में, कम्पनी के राज्य की समाप्ति होने पर, अंगरेजी राज्य में यह बात न हुई। सरकार राज्य-प्रबन्ध के खर्च बढ़ाती गई। अतएव जमीन की आमदनी का घटाना उसने अपने लिए असंभव समझा। प्रजा के सुख-दुःख का उसने कम ख्याल किया, अपने राज्य की दृढ़ता और विस्तार का अधिक। तब से आज तक इस देश के कृपीजीवो जन ५० फीसदी मालगुजारी की चक्की के बराबर पिसते चले आराहे हैं। मिस्टर आर० सी० दत्त ने इस विषय का अच्छा अध्ययन किया है। उन्होने इस विषय में गवर्नमेंट से बहुत कुछ लिखा पढ़ी की है। और इन बातो को एक पुस्तक में लिख कर बड़ी योग्यता से दिखलाया है कि इस देश की प्रजा लगान के इतने भारी बोझ को नहीं उठा सकती। प्रजा की अनेक अपदाओ का कारण जमीन के लगान की अधिकता ही है। पर गवर्नमेंट ने उनकी बात नहीं मानी। लॉर्ड कर्जन की गवर्नमेंट ने, उनकी पुस्तक के अवध में, एक पुस्तक प्रकाशित की। उसमें इस बात के सिद्ध करने की कोशिश की गई कि जो मालगुजारी प्रजा से ली जाती है वह अधिक नहीं है। पर सरकार की दलीलें ऐसी कमजोर और ऐसी बैजड़ है कि कोई भी पक्षपातहीन आदमी उन्हें नहीं मान सकता।

प्रजा के हितचिन्तकों की राय है कि इस देश की जमीन प्रजा की है। न राजा की हैं, न ज़मींदारों की ! जो जमीन जिस काश्तकार के कब्जे में चली जाती है उसे उसको मोरूषि जायदाद समझना चाहिए। उसको मालगुजारी सरकार यदि वसूल करना ही चाहती है तो करे। पर हर बीसवें और तीसवें साल नया बंदोबस्त कर के उसे बढ़ावे नहीं। जितना