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भूमिका


उत्तरार्द्ध में बीस । इस प्रकार समग्र पुस्तक बारह भागो और सैतालीस परिच्छेदो में समाप्त हुई हैं । प्रथमार्द्ध में सम्पत्ति की उत्पत्ति, वृद्धि, चिनियम और वितरण आदि का विवेचन करके सम्पत्ति के उपभोग और देश की आर्थिक अवस्था की तुलना की है। पुस्तकारंभ में इस बात का भी विचार किया है कि इस देश में सम्पत्तिशास्त्र के अभाव का कारण क्या है, और इस शास्त्र के शास्त्रत्व की पदवी दी जा सकती है या नहीं। द्वितीयार्ध्द में सास्त्र, वैंकिंग, वीमा, व्यापार, कर और देशान्तरगमन का विचार करके सम्भूयसमुत्थान, हड़ताल और द्वारावरोध आदि पर भी एक एक परिच्छ द लिखा है । व्यापार-चिपय को हमने अधिक विस्तार के साथ लिम्झना आवश्यक समझा है, क्योंकि यह वियय बड़े महत्त्व का है । इसे सात परिच्छेदों में बाँट कर व्यापार-विषयेक प्रायः सभी आवश्यक बातों पर विचार किया हैं। गवर्नमेंट फी व्यापार-व्यवसाय- धियक नीति प्रार्थन्धनरहित तथा वन्धनचिहित व्यापार पर एक एक परिच्छेद अलग लिखा है। इस पुस्तक में कहीं कहीं पहले कही गई बातों की पुनरुक्ति ६३ पड़ेगी । इसका कारण यह है कि इस शास्त्र के कितने ही प्रकरण एक दूसरे से बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध २वते हैं । इससे कभी कभी एक प्रकरग की वाताा र प्रकरण में फिर फिर से दोहराना पड़ा है।

सम्पत्तिशास्त्र का चिपय बहुत ही गहन और कठोर है । चादग्रस्त बातें भी इसमें अनेक है । अँगरेजी में इस विपय की जो मुंग्या मुख्य पुस्तके हैं उनके सिग्न्ननेवालों के मन में कहाँ कहीं भिन्नता है । क्वाई किसी सिद्धान्त के नहीं मानता, केाई किसी को । किसी किसीग्रन्थ में इस मतभिन्नत्व का अनेक स्थलों पर डढुंख मिलता है । सम्पत्तिशास्त्र के ज्ञाताओं में अब तक परस्पर शास्त्रार्थ जारी हैं। हमारा पहले यह इरादा थी कि वादग्रस्त चिपयों का भी इस पुस्तक में उल्लेख किया जाय और यह दिखलाया जाय कि किस ग्रन्थफार को किस विपय में क्या मत है । परन्तु ऐसा करने से पुस्तक का चिस्तान, बहुत बढ़ जाता ; पुस्तक विशेप जटिल और क्लिष्ट भी होजाती। इससे हमने इस विचार कै रहित कर दिया ।

इस शास्त्र की युरप और अमेरिका में बड़ी महिमा है। पर यहाँ कालेजों में जो लोग शिक्षा पाने हैं चिशेप करके उन्हीं की इस शास्त्र के सिद्धान्तों से