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सूद।
चौथा परिच्छेद।

सूद।

ज़मीन, पूँजी और मेहनत के योग से सम्पत्ति की उत्पत्ति होती है। पूँजी संयमशीलता का फल है। भविष्यत् में नई सम्पत्ति पैदा करने के लिए पहली सम्पत्ति का जो हिस्सा अलग रख दिया जाता है उसी का नाम पूँजी है। सम्पत्ति की वृद्धि और खर्च की कमी के तारतम्य पर ही पूँजो की वृद्धि अवलम्बित रहती है। सम्पत्ति की वृद्धि के साथ साथ खर्च की मात्रा जितनीही कम होगी उत्तनीही पूँजी बढ़ेगी । जब सम्पत्ति न थी तब पूंजी भी न थी। क्योंकि पूँजी भी एक प्रकार की सम्पत्ति-विशेष है। समाज की आदिम अवस्था में सम्पत्ति बहुत कम थी। इससे पूँजी भी कम थी। अब पहले से अधिक सम्पत्ति है, इससे पूँजी भी पहले से अधिक है। जिसके पास मतलब से अधिक पूँजी होती है उसे वह औरों को व्यवहार करने के लिए देता है। अथवा यों कहिए कि जो मनुष्य अपनी पूँजो लगाकर खुद ही कोई व्यापार-व्यवसाय करके नई सम्पत्ति नहीं उत्पन्न करता वह उसे औरों को देकर अपनी पूंजी बढ़ाता है। अर्थात् जिसे घह अपनी पूँजी व्यवहार के लिए देता है वह उस पूँजी से अलग रोज़गार करता है और उसका बदला पूंजीदार को देता है। पूंजी का व्यवहार करने के बदले में जो सम्पत्ति पूंजिवाले, अर्थात् महाजन, को मिलती है उसी का नाम सूद है। जमीन के व्यवहार के लिए ज़मींदार को जो कुछ मिलता है वह लगान है, और पूँजी के व्यवहार के लिए महाजन को जो कुछ मिलता है वह सूद या ब्याज है।

कल्पना कीजिए कि रामदत्त कुरमी स्वेती करना चाहता है। पर उसके पास न तो ज़मीन है, न.पूँजी। सिर्फ मेहनत ही उसके घर की है। उसने पाँच बीघे जमीन तो अपने गाँध के ज़मींदार रामसिंह से ली और दस मन अनाज रामदास महाजन से ! इसी अनाज पर बसर करके उसने खेती के सब काम किये। यही गोया उसकी पूंजी हुई। जब खेत की फसल तैयार हुई तब उसी से उसने रामसिंह को ज़मीन का लगान दिया और उसी से जो अनाज उसने रामदास से लिया था यह भी चुकाया। ६ महीने रामदत्त मे रामदास का अनाज व्यवहार किया। उसके बदले में रामदत्त को कुछ देना चाहिए। क्योंकि रामदत्त अपना अनाज ६ महीने व्यवहार करने के लिए मुफ़्त में तो देगा नहीं। कुछ लाभ उसे होगा तभी देगा। अब यदि रामदत्त

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