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सम्पत्ति-शास्त्र।

ने सचाई पर अनाज लिया होगा तो उसे दस के साढ़े बारह मन अनाज देना पड़ेगा। यही ढाई मन अधिक अनाज, ६ महीने तक दस मन अनाज व्यवहार करने का सूद हुआ।

जो बात अनाज की है वही रुपये पैसे की भी है। अनाज प्रत्यक्ष सम्पत्ति है, रुपया-पैसा उसका चिह्न मात्र है। जो लोग व्यवहार करने के लिए औरों को रुपया उधार देते हैं उनको जो कुछ मिलता है वह भी सूदही है। जो लोग व्यापार-व्यवसाय के खतरे को नहीं उठाना चाहते, अथवा जो किसी कारण से कोई काम खुद नहीं कर सकते, अथवा जो काम-काज की मेहनत नहीं बरदाश्त कर सकते वे अपनी बची हुई सम्पत्ति-अपना अव्यवहत रुपया-दूसरों को व्यवहार के लिए देकर उसका बदला सूद के रूप में लेते हैं। सूद पानेवाला खुद सम्पचि नहीं उत्पन्न करता। न किसी रोजगार-धन्धे का जोखों ही उस पर रहता है और न कोई कारखाना चलाने का खर्च ही उसे उठाना पड़ता है ! अर्थात् बिना जोखो उठाये और बिना किसी तरह का खर्च किये ही महाजन को सूद मिल जाता है। सूद का यह लक्षण, मुनाफ़े का लक्षण समझाने के लिए, अच्छी तरह याद रखना चाहिए। सूद पर रुपया उठाने से उठानेवालों की सम्पत्ति भी बढ़ती है और जिन्हें चे रुपया उधार देते हैं उनकी भी। साथही मेहनत-मजदूरी करनेवालों को भी लाभ पहुँचता है। देश में जितनी ही अधिक पूंजी काम-काज में लगाई जाती है उतनी ही अधिक सम्पत्ति बढ़ती है और उतनी ही अधिक मजदूरी भी मजदूरों को मिलती है। पूँजी की उत्पत्ति अधिक होने से सूद कम हो जाता है। और लगान, मज़दूरी और सूद देने से जिन चीजों की उत्पत्ति या तैयारी होती है उनके लिए.यदि सूद कम देना पड़ा तो मज़दूरी की शरह बढ़ जाती है। क्योंकि जो लोग औरों की पूँजी के बल पर मेहनत करके सम्पचि पैदा करते हैं उनको यदि कम सूद देना पड़ता है तो उनकी मेहनत का हिस्सा, अर्थात् मजदूरी, अधिक बच जाती है। अर्थात् जितनाही असे कम सूद देना पड़ता है उतनाही उन्हें अधिक काम होता है। फिर, पूँजी अधिक होजाने से जब उसका सूद कम आने लगता है तब पूँ जोदार महा- जन अपना रुपया सूद पर न उठाकर, कुछ भी अधिक लाभ की प्राशा होने पर, खुदही व्यापार-व्यवसाय करने लगते हैं। व्यापार-व्यवसाय बढ़ने से मजदूरों की मांग अधिक होती है। क्योंकि जितनाही अधिक रोजगार चट-