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सूद।

लेगा, जितनेहीं अधिक कल-कारख़ाने खुलेंगे, उतनीहीं अधिक मेहनत मज़दूरी करनेवालों की ज़रूरत होगी। और जितनीं हीं अधिक यह ज़रूरत बढ़ेगी उतनीहीं मज़दूरी अधिक देनी पड़ेगी। मज़दूरी से मतलब कुलियों की मज़दूरी से नहीं, किन्तु हर तरह की परिश्रम करनेवाले लोगों के वेतन, अर्थात् तन्नखाह, से मतलव है।

हिन्दुस्तान में पूँजी का प्रायः अभाव है; वह बहुत ही थोड़ी है। इससे और देशों की अपेक्षा यहाँ सूद की शरह अधिक है। शरह अधिक होने से यहाँवाले सूद खाना बहुत पसन्द करते हैं। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो अपनी पूँजी को किसी ख़तरे और ख़र्च के उद्यम में लगाते हों। इंगलैंड में सुद की शरह इतनी कम है और वहाँ के पूँजीवाले इतने साहसी हैं कि सूद पर रुपया लगाने की अपेक्षा यदि कुछ भी अधिक लाभदायक कोई व्यापार, व्यवसाय या रोज़गार देखते हैं तो फ़ौरन अपना रुपया उसमें लगा देते हैं। इस प्रकार वे अपनी पूँजी को बढ़ाने की हमेशा चेष्टा करते हैं। इँगलैंड में इतना अधिक धन है कि वहाँ उसका उपयोग होने के बाद भी बहुत कुछ बच जाता है जो अन्यान्य देशों में रेलवे आदि बनाने के काम आता है। इंगलैंड के व्यवसायी फ़ी सदी ६ रुपये मुनाफ़ा पाने पर ही जो व्यवसाय करते हैं, भारतवर्ष के व्यवसायी उसी व्यवसाय में फ़ी सदी १४ रुपये मुनाफ़ा उठाने की आशा रखते हैं। अन्यथा यहाँवाले वह व्यवसाय न करके फ़ी सदी १२ रुपये सूद लेकर निश्चिन्त रहते हैं। यह भी यदि उनसे नहीं होता तो किसी बैंक में चार या पांच फ़ी सदी सूद पर अपना रुपया लगा देते हैं, या साढ़े तीन फ़ी सदी का कम्पनी का काग़ज खरीद लेते हैं। पर कोई व्यवसाय नहीं करते। एक तो पूँजी कम, दूसरे व्यवसाय करने की योग्यता भी कम। इससे देश की सम्पत्ति नहीं बढ़ती। अधिक लाभ व्यापार व्यवसाय करने से होता है, सूद पर रुपया लगाने से नहीं। १९०५ ईसवी के दिसम्बर में काशी में जो कांग्रेस हुई थी उसमें माननीय गोखले महाशय ने कहा था कि भारतवासियों के पास इस समय ५० करोड़ रुपये का कम्पनी का कागज़ है, ११ करोड़ रुपया डाकखाने के बैंक में जमा है और ३३ करोड़ और और बैंकों में है। यदि यह ९४ करोड़ रुपया किसी व्यापार-व्यवसाय में लगाया जाता तो न मालूम कितना मुनाफ़ा होता और कितने आदमियों का पैट पलता।