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सम्पत्ति-शास्त्र।


किसी किसी की राय है कि सूद की शरह बढ़ने से ही, सूद पर रुपया लगा कर, सब लोगों को अपनी पूँजी वढ़ाने की इच्छा होती है। परन्तु सच बात यह है कि सूद की शरह कम होने से भी पूँजी चढ़ाने की इच्छा मनुष्य को होती है। अपनी पूँजी बढ़ाना मनुष्य फ़ी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। कौन ऐसा होगा जे किसी काम में रुपया लगा कर यह न चाहता है कि एक के दो हो जायँ? जिसे कम सूद मिलेगा वह अपना ख़र्च कम कर देगा और पूँजी को बाढ़बेगा जिसमें उसे मतलब भर के लिए काफ़ी सूद मिलने लगे।

कल्पना कीजिए, किसी का सालाना ख़र्च १२०० रुपया हैं। अथवा यह कहिए कि साल में वह इतना रुपया ख़र्च करने की इच्छा रखता है। वह किसी मामूली बैंक में, एक निर्दिष्ट समय के लिए, ६ रुपये कड़े सूद पर, २०,००० रुपये जमा करना चाहता है। पर उसे डर है कि कहीं उस बैंक का दिबाला न निकल जाय जो ६ रूपये संकड़े सूद के लोभ में फँस कर मेरी कुल पूँजी ही डूब जाय। इससे वह पहले की भी अपेक्षा अधिक संयम करके अपना ख़र्च कम कर देगा और पूँजी बढ़ायेगा। जब उसको पूँजी २० की जगह ४० हज़ार हो जायगी तब उस रुपये से ३ रुपये सैकड़े सूद घाली कम्पनी का काग़ज़ मोल लेकर बहू निश्चिन्त हो जायगा।

अब यदि सूद की शरह १२ रुपये सैकड़े हों तो सिर्फ़ १०,००० रुपये की पूँजी से ही साल में १२०० रुपये ख़र्च को मिल जायँगे। परन्तु कोई आदमी अपनी वर्तमान अवस्था में सन्तुष्ट नहीं रहता। जो आदमी साल में १२०० रुपये ख़र्च करता है उसकी इच्छा उससे भी अधिक ख़र्च करने को हो सकती है। अथवा उसकी ज़रूरतें बढ़ जाने से वह अधिक ख़र्च करने के लिए लाचार हो सकता हैं। अतएव यह सिद्ध है कि सूद की कमी-वेशी के कारण धन इकट्ठा करने की इच्छा में कमी-बेशी नहीं होती। तथापि अधिक सूद मिलने से पूँजी का बढ़ाना जितना सहज है, कम सूद मिलने से उतना सहज नहीं है। अधिक सूद पाने से पूँजी बढ़ाना विशेष सहज है, इसी से इस देश के धनवान अक्सर महाजनी ही करते हैं।

हिन्दुस्तान में जिसके पास कुछ धन होता है वह उसे बहुधा किसी बैंक में ही जमा करके ४ या ५ रुपये सैकड़े सूद पर सन्तुष्ट रहता है। पर जिस बैंक में वह रुपया जमा करता हैं वही बैंक उसी रुपये को नौ दस रुपये सैकड़े सूद पर औरों को देकर लाभ उठाता है। और जो लोग बैंक