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सम्पत्ति-शास्त्र।

का लगान कम आता है। क्योंकि अधिक ज़मीन जोतने में अधिक परिश्रम करने और अधिक पूँजी लगाने से अधिक सम्पत्ति उत्पन्न होती है। और सम्पत्ति अधिक होने से पूँजी भी अधिक हो जाती है। तात्पर्य यह कि अधिक ज़मीन जोती जाने से लगान बढ़ता है और अधिक पूँजी होने से सूद की शरह घटती है।

किसी किसी देश में सूद की कई शरहें होती हैं। ज़मीन, घाग़, मकान और ज़ेवर अदिं गिरवी रखकर रुपया क़र्ज़ लेने से सूद कम देना पड़ता है। पर योहीं दस्ती दस्तावेज़ लिख कर क़र्ज़ लेने से अधिक सूद देना पड़ता है। इसी पिछली शरह के ऊपर सूद को साधारण शरह निश्चित होती है। दसती दस्तावेज़ लिखाकर क़र्ज़ देने वालों को कभी कभी असल से भी हाय धोना पड़ता है। इसी से वे अधिक सूद लेते हैं। व्याज दर व्याज लगाने से दो ही चार साल में सूद की रकम असल के बराबर हो जाती हैं। इस दशा में सूद सहित क़र्ज़ बेबाक़ करना कठिन हो जाता है और महाजनों का रुपया मारा जाता है। परन्तु दो चार महजनों को, इस तरह, हानि होने पर भी, अधिक सूद पाने के लालच से, और लोग ज़ियादह सूद पर रुपया उठाने से बाज़ नहीं आते। जहाँ वे देखते हैं कि देनदार का व्यापार-व्यवसाय अच्छा नहीं तहाँ अपने रुपये का सख़्त तक़ाज़ा शुरू करते हैं। फल यह होता है कि चेचारे व्यवसायी का रोज़गार और अधिक दिन तक नहीं चल सकता। महाजन लोग अकसर नालिश कर देते हैं। इससे हतभाग्य दैनदार की साख जाती रहती है। और बाज़ार में साख का होना उसकी दस गुनी पूँजी के बराबर है। बाज़ार का रुख़ देख कर जिस समय कोई व्यवसायी अपनी साख के बल पर माल ख़रीदने का बन्दोबस्त कर रहा है, उसी समय उसकी साख जाती रहने से, न उसे माल मिलता है और न महाजन का सब रुपया ही बसूल होता है। उधर व्यवसायी का व्यवसाय पूरे तौर पर मारा जाता है। अतएव अधिक सूद लेना अच्छा नहीं।

जिस काम के लिए सूद पर क़र्ज़ लिया जाता है उसमें यदि अधिक लाभ हो तो अधिक सूद देना भी नहीं खलता। आस्ट्रेलिया के किसानों को बीस फ़ी सदी मुनाफ़ा होता है। इस कारण वे लोग महाजनों से बहुत अधिक सूद पर क़र्ज़ ले सकते हैं। पर इस देश के किसानों को खेती से बहुत कम फ़ायदा होता है। इससे वे बहुत सूद नहीं दे सकते। और