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सूद।

यदि मजबूर होकर उन्हें ज़ियादह सूद पर क़र्ज़ लेना पड़ता है तो मह़ाजन का रुपया वसूल नहीं होता और किसी दिन क़र्ज़दार की लोटा थाली बिक जाती है। इसी दुर्व्यवस्था को दूर करने के लिए कुछ समय से सरकार ने "को-आपरेटिव क्रेडिट सोसायटी" नाम के बैंक खोले हैं, जिनसे प्रजा को थोड़े सूद पर रुपया क़र्ज़ मिलता है। खाने पीने की चीज़ें सस्ती होने से मज़दूरी का निर्ख़ कम है। जाता है और व्यापार-व्यवसाय करने वालों को अधिक मुनाफ़ा होता है। इससे सूद की शरह बढ़ जाती है। विपरीत इसके सोने चाँदी को नई नई खानों का पता लगने से देश की पूँजी बढ़ जाती है। और पूँजी बढ़ने से सूद की शरह कम हो जाती है। यदि कहीं बहुत से बैंक हों और वे आपस में बढ़ा-ऊपरी करके अपना अपना रुपया खुद पर उठाने की कोशिश करें तो भी खुद की शरनु कम हो जाती है। आज कल जो सूद की शरह बढ़ी हुई है उसके कारण ये हो सकते हैं:—

(१) रेल, जहाज़ और सड़कों के हो जाने से एक जगह से दूसरी जगह और एक देश से दूसरे देश को जाना आना बहुत आसान हो गया है। डाकख़ाने और तार से चिट्ठी-पत्री, हुंडी और चेक आदि भेजने और तत्सम्बन्धी ख़बरें देने में भी महाजनों को विशेष सुभीत हो गया है। इससे अन्यान्य शहरों और देशों में सूद पर रुपया लगाने में बहुत आसानी होती है। जहाँ से रुपया जाता है वहाँ की पूँजी कम हो जाती है। इससे सूद की शरह बढ़ती है।

(२) खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने की कितनीहीं चीज़े दूसरे देशों से आती हैं। इससे देश की पूँजी थोड़ी बहुत कम जरूर हो जाती है। फल यह होता है कि महाजन सूद अधिक लेते हैं।

(३) सम्भूय-समुत्थान का प्रचार होने, अर्थात् बहुत आदमी मिलकर कम्पनियाँ खड़ी करके व्यापार-व्यवसाय करने, से पूँजी का कुछ अंश इस तरह के कामों में अटक जाता है। इससे छुट्टा पूँजी कम हो जाती है और सूद की शरह बढ़ जाती है।

(४) लड़ाइयों का ख़र्च पूरा करने अथवा प्रजा के हित के लिए रेल, नहर, सड़कें आदि बनाने के लिए गवर्नमेंट बहुधा प्रजा से तीन या साढ़े तीन फ़ी सदी सूद के हिसाब से क़र्ज़ लिया करती है। यदि ऐसा न होता तो जो पूँजी इस तरह गवर्नमेंट के क़र्ज़ दे दी जाती है वह बनी रहती और