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सम्पत्ति-शास्त्र।

पूँजी का परिमाण अधिक होने से सूद की शरह कम हो जाती। पर ऐसा नहीं होता, इसीसे पूँजी का संग्रह कम रह जाने से सूद अधिक देना पड़ती है। सारांश यह कि देश में पूँजी अधिक होने से सूद की शरह घटती है और कम होने से बढ़ती है।

जो रुपया क़र्ज़ दिया जाता है उसके वसूल होने में यदि किसी तरह का सन्देह नहीं होता तो सूद कम पड़ता है। इस दशा में महाजन को विश्वास रहता है कि मेरा रुपया नहीं डूबेगा। इससे वह कम सूद पर ही सन्तोष करता है। पर यदि उसे रुपया वसूल पाने में किसी तरह का ख़तरा जान पड़ता है तो उस ख़तरे के कारण सूद की शरह वह बढ़ा देता है। यही कारण है कि सूद की शरह प्रायः कभी स्थिर नहीं रहती। कहीं कम होती है, कहीं ज़ियादह। यहाँ तक कि एकही शहर में जुदा जुदा शरहें होती हैं। जहाँ रुपये के डूब जाने की ज़रा भी डर होता है वहाँ शरह अधिक होती है और जहाँ कम या बिलकुल ही नहीं होता वहाँ शरह थोड़ी होती है। तात्पर्य्य यह कि जितना हीं अधिक ख़तरा उतनाहीं अधिक सूद। एक बात और भी है कि जो लोग क़र्ज़ लेना चाहते हैं वे इस बात के यथासंभयव छिपाते हैं कि हमें क़रज़ चाहिए। वे क़रज़ लेना अपनी हतक समझते हैं। इससे दो चार जगह अपनी इच्छा ज़ाहर करके फर्म सूद पर रुपया लेने की कोशिश नहीं करते। चुप चाप कहीं से लेलेते हैं और जो सूद महाजन माँगता है देने को राज़ी हो जाते हैं। यदि सूद की शरह का भी वैसाही मोल तोल हो जैसा और चीज़ों का होतो है तो महाजनों में रश्क पैदा हो जाय-बढ़ा ऊपरी होने लगे-और लाचार होकर उन्हें शरह कम करनी पड़े।


पाँचवाँ परिच्छेद।

मुनाफ़ा।

पूँजी सञ्चय का फल हैं। जो सञ्चय करना नहीं जानता, या नहीं करता वह पूँजी से हमेशा बन्चित रहता है—वह कभी धनशाली नहीं हो सकता। सञ्चय करना सब का काम नहीं। जो व्यावहारिक चीज़ों में से कम उपयोगी चीज़ों का व्यवहार बन्द कर देता है, अथवा योँ कहिए कि जो अनेक प्रकार के सांसारिक सुखों में से कुछ सुखों का उपयोग छोड़ देता है वही सञ्चय करने में समर्थ होता है। सञ्चय के लिए मनोनिग्रह