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मुनाफ़ा।

दरकार होता है। मन चाहना है कि रुपये के १६ वाले लखनऊ के सफ़ेदा आम खायँ। पर सम्पत्ति के सञ्चय की इच्छा रखनेवाला आदमी मन की इस तरंग को दबा देता है और साधारण आमों से ही सन्तोष करता है। इस तरह मनोनिग्रह करना आसान नहीं। बड़ी मुश्किल से मन के अभिलाप रोके रखते हैं। अतएव सञ्चय करने में आदमी को तकलीफ़ें उठानी पड़ती हैं।

सञ्चयही का दूसरा नाम पूँजी है। जब पूँजी जमा करने में आदमी को तकलीफ़ें उठानी पड़ती हैं तब वह मुफ्त में औरों को नहीं मिल सकती। जो मनोनिग्रह करके–अनेक प्रकार के दुःख कष्ट उठा कर—पूँजी जमा करता है वह यदि उसे किसी को किसी काम के लिए देगा तो उसका कुछ बदला ज़रूर लेगा। इसी बदले का नाम सूद या मुनाफ़ा है। सम्पत्ति उत्पन्न करने या और किसी काम में लगाने के लिए जो पूँजी उधार दी जाती है इसके बदले में पूँजी वाले को जा कुछ मिलता है वह सूद है। जो पूँजीदार सुद लेता है वह सम्पत्ति की उत्पत्ति नहीं करता, उत्पत्ति को ख़र्च भी नहीं करता और उत्पत्तिसम्बन्धी जोखिम या ज़िम्मेदारी भी उस पर नहीं रहती। परन्तु जो मुनाफ़े की इच्छा रखता है उसे ये सब बातें अपने सिर लेनी पड़ती हैं। सूद और मुनाफ़े में यहीं अन्तर है।

सरकारी, अथवा और विश्वसनीय, बैंकों में रुपया जमा करने से रुपया डूबने का डर नहीं रहता। जमा किये हुए रुपये को बैंकबाले औरों को, व्यापार-व्यवसाय आदि करने के लिए, उधार देते हैं। उस रुपये से जो व्यापार-व्यवसाय किया जाता है उसका ख़र्च रुपया जमा करनेवाले को नहीं देना पड़ता। उससे होनेवाले हानि-लाभ की ज़िम्मेदारी भी उसे नहीं उठानी पड़ती। यह कुछ न करके उसे अपने रुपये का बदला ३ या ४ रुपये सैकड़े के हिसाब से मिल जाता है। यदि पूँजीवाला अपनी पूँजी इस तरह के बैंकों में जमा न करके और लोगों को उधार देगा तो उसे सूद अधिक मिलेगा। पर बैंकों की अपेक्षा रुपया डूबने का डर अधिक रहेगा। अतएव विश्वसनीय बैंकों की अपेक्षा और लोगों से जितना सूद उसे अधिक मिलेगा वह, यथार्थ में, सूद नहीं किन्तु रुपये डूबने के जोखिम का बदला है। जोखिम जितना ही अधिक होगा सूद भी उतना हीं अधिक मिलेगा। खुदही कई व्यापार-व्यवसाय करने में जोखिम उठाना पड़ता है, ख़र्च भी करना पड़ता है, और काम-काज की निगरानी भी करनी पड़ती है। अतएव उसमें

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