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मुनाफ़ा।

गुण हों। जो ज़िम्मेदारी उठाने का साहस नहीं रखता, जे भावी लाभ की अनिश्चत आशा पर रुपया नहीं लगा सकता, जै दूरंदेश नहीं है वह कारख़ाने चला कर कभी कामयाब नहीं हो सकता। अतएव सूद खाने वाले महाजनों और कारख़ाने के मालिकों में बहुत अन्तर है। जो गुण कारख़ानेदारों में होने चाहिए उनका होना महाजों में ज़रूरी नहीं। पूँजीदार महाजनों में वे गुण यदि न भी हों तो भी उनका कारोबार नहीं रुक सकता; फ़िर भी उनके रुपये पर उन्हें सूद मिलता ही जायगा। पर जो गुण कारख़ाने के मालिकों में होने चाहिए वे यदि उनमें न होंगे तो एक दिन भी उनका क़ारोवार न चल सकेगा। अतएव पूँजी लगाने वाले महाजनों और कारख़ानेदारों का वर्ग पक दूसरे से जुदा समझना चाहिए। हर महाजन या पूँजीदार, कारख़ानेदार नहीं हो सकता; क्योंकि जो गुण कारख़ानेदार में होने चाहिए उसमें नहीं होते। हाँ यदि किसी महाजन या पूँजीदार में कारख़ानेदारी के भी गुण हों तो वह महाजनी और कारख़ानेदारी, दोनों काम, कर सकता है और दूना फ़ायदा भी उठा सकता है।

कारख़ाने में जो चीज़ें बनाई या तैयार की जाती हैं उनपर शुरू से लेकर बेची जाने तक जो ख़र्च बैठता है वही उत्पादन-व्यय अर्थात् उत्पत्ति का खर्च है! कारख़ानेदार हमेशा यही चाहता है कि उसके माल की क़ीमत ख़र्च से अधिक आवे। इसी ख़र्च और क़ीमत के अन्तर का नाम मुनाफ़ा है। इससे जितनी ही अधिक क़ीमत अवेगी उतना ही अधिक मुनाफ़ा होगा। पर याद रखिए, मुनाफ़े का समय से भी गहरा सम्बन्ध है। जिस तरह एक निश्चित समय तक पूँजी का व्यवहार करने से सूद की एक निश्चित मात्रा मिलती है, उसी तरह एक निश्चित समय के भीतर मुनाफ़े की भी एक निश्चित मात्रा मिलती है। मान लीजिए कि आपने किसी रोज़गार में ३०० रुपये लगाये। उससे एक महीने तक आप को रुपया रोज़ मुनाफ़ा हुआ। इस हिसाब से एक महीने में ६०० रुपये पर आप को ३० रुपये मिले। अर्थात् फ़ी महीने आपको ५ रुपये सैकड़े मुनाफ़ा हुआ। पर यही मुनाफ़ा यदि दो महीने में मिले तो मुनाफ़े की शरह ५ रुपये नहीं, किन्तु फ़ी महीने ढाई रुपयें सैकड़े ही पड़ेगी। इससे स्पष्ट है कि मुनाफ़े की शरह पूँजी के परिमाण ही पर नहीं, किन्तु उस समय पर भी अवलम्बित है जिसमें सब मुनाफ़ा मिले। जिस चीज़पर जे ख़र्च पड़ता है उससे उसकी बिक्री से जितनी