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मुनाफ़ा।

ठहरी सरकार। वह अपना हिस्सा कम नहीं करती; उलटा बढ़ा चाहे भले ही दे। बाक़ी रहे मज़दूर और पूँजीवाले, सो उन्हीं दोनों का हिस्सा कम हो जाता है। अतएव जनसंख्या की वृद्धि के कारण सम्पत्ति की उत्पत्ति का ख़र्च बढ़ने से देश की बड़ी हानि होती है। उधर लगान बढ़ जाता है, इधर मुनाफ़ा कम हो जाता है। यही नहीं, किन्तु देश में आदमी अधिक हो जाने से मज़दूरी की शरह भी कम हो जाती है। अतएव सब तरफ़ से लोगों को विपत्ति ही का सामना करना पढ़ता है। सरकार अपनी मालगुजारी कम नहीं करती। देश में पूँजी बहुत कम; तिसपर मुनाफ़ा थोड़ा। मज़दूरों को काफ़ी मज़दूरी न मिलने से पेट भर खाने को नहीं। बिना खूब खाये वे मेहनत अच्छी तरह कर नहीं सकते। अतएव सम्पत्ति भी कम उत्पन्न होती है। जो अनाज उत्पन्न होता हैं अधिकांश विदेश चला जाता है। ये सब बातें यदि ऐसी ही बनी रहीं तो देश की क्या दशा होगी, इसकी कल्पना मात्रा ही से विचारशील आदमियों को निःसीम परिताप होता है।

किसी किसी का ख़याल है कि जिस चीज़ का खप अधिक होता है उस की क़ीमत चढ़ जाती है। क़ीमत चढ़ जाने से मुनाफ़ा अधिक होता है। और मुनाफ़ा अधिक होने से उस चीज़ के बनाने या तैयार करनेवालों को लाभ भी अधिक होता है। पर यह भ्रम है। सब चीज़ो की क़ीमत उनकी उत्पत्ति के ख़र्च के अनुसार निश्चित होती है। और उत्पत्ति के ख़र्च—अर्थात् उत्पादन-व्यय—के कई अवयव हैं। उसमें कच्चे माल की क़ीमत, लाने और भेजने का ख़र्च, निगरानी का ख़र्च, मज़दूरी, और कई तरह के महसूल, सभी शमिल रहते हैं। इनमें से किसी भी ख़र्च के बढ़ने से उत्पादन-व्यय ज़रूर ही बढ़ जाता है। और उत्पादन-व्यय बढ़ने से क़ीमत भी बढ़ जाती है। जितना ख़र्च बढ़ा उसके अनुसार क़ीमत बढ़ गई। मुनाफ़ा कुछ थोड़े ही बढ़ जाता है। मुनाफ़ा तो तब बढ़ता जब उत्पत्ति का ख़र्च कम हो जाता, पर उत्पत्ति उतनी ही होती। उदाहरण के लिए मज़दूरों को जो मज़दूरी दी जाती है वह यदि आधी हो जाय, पर काम उतनाही हो; अथवा मज़दूरी उतनी हीं रहे, पर काम दूना हो तो ज़रूर मुनाफ़ा अधिक होगा। यही बात उत्पत्ति के ख़र्च के अन्यान्य अवयवों को भी है। उत्पत्ति कम न हो कर यदि उत्पाथन-व्यय के किसी अवयव में कमी हो जाय तो मुनाफ़ा बढ़ जायगा। अन्यथा नहीं।

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