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सम्पत्ति-शास्त्र।


जिसकी मेहनत से जे सम्पत्ति उत्पन्न हो उसे उसी सम्पत्ति का हिस्सा मिलना चाहिए। पर सम्पत्ति के रूप में मेहनत का बदला देने का रवाज नहीं है। क्योंकि इससे मेहनती को अपने जीवनोपयोगी पदार्थ मोल लेने या बदलने में सुभीता नहीं होता। कल्पना कीजिए कि कुछ आदमी किसी पुतलीघर में काम करते हैं। वहाँ सूत काता जाता है। यदि उन्हें उनकी मेहनत के बदले सूत मिलेगा तो उसे बाज़ार में बेचना पड़ेगा। निक जाने पर उन्हें उसकी क़ीमत से खाने पीने का सामान और कपड़े लत्ते मोल लेने पड़ेगें। इसमें समय भी अधिक लगेगा और तकलीफ़ भी अधिक होगी। इसीसे मेहमतियों को उनकी मेहनत का बदला नक़द रुपये के रूप में दिया जाता है। रुपया हर तरह की सम्पत्ति का चिह्न है। अतएव उसके बदले बाज़ार में सब चीज़ें बिना प्रयास मिल सकती हैं। तथापि देहात में मेहनती को मेहनत का बदला अब भी कभी कभी सम्पत्ति ही के रूप में दिया जाता है। उदाहरण के लिए जो लेाग खेत काटते हैं, या खेत में गिरा हुआ अनाज इकट्ठा करते हैं, उन्हें उनकी मेहनत का बदला कटी हुई फ़सल या जिन्स के रूप में दिया जाता है। मेहनत के इस तरह के बदले की असल उज़रत या मज़दूरी करते हैं और जो बदला रुपये के रूप में दिया जाता है उसे नक़द उजरत या मज़दूरी कहते हैं।

मनुष्य विशेष करके इसलिए मेहनत करता है जिसमें उसे व्यवहार की आवश्यक चीज़ें प्राप्त हो सकें। खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने आदि के लिए जो चीज़ें दरकार होती हैं उन्ही की गिनती व्यावहारिक अर्थात् जीवनोपयोगी चीज़ों में है। अतएव असल उजरत वह चीज़ हैं जिसकी बदौलत मेहनती आदमी के जीवनोपयोगी सामग्री, या शरीर के सुखी रखने के लिए और सामान, मिल सकें। खेत में काम करनेवालों को जो असल उजरत मिलती है उससे उनको व्यावहारिक काम निकलता है। पर नक़द उजरत से नहीं निकलता। नक़द उजरत को बदल कर फिर उसे असल या यथार्थ उजरत के रूप में लाना पड़ता है। खेत में काम करनेवाले जिस मज़दूर को अनाज के बदले रुपया मिलता है उसे उस रुपये के बदले फिर अनाज लेना पड़ता है। अथवा यदि उसे और कोई चीज़ दरकार हुई तो वह चीज़ लेनी पड़ती है। इससे सिद्ध हुआ कि असल उजरतही मुख्य चीज़ हैं।

जितने मेहनती हैं—जितने मज़दूर हैं—सब असल उजरत, अर्थात् रोटी,