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मज़दूरी।

कपड़े इत्यादिही के लिए मेहनत करते हैं। अतएव यदि ये चीज़ें उन्हें अधिक मिलें तो वे इस बात की ज़रा भी परवा न करेंगे कि नक़द उजरत उन्हें कम मिलती है या अधिक। क्योंकि रुपये की कोई खाता तो है नहीं। उसके बदले बाज़ार में व्यवहार की चीज़ें ही मोल ली जाती हैं। यदि अनाज, कपड़ा, तम्बाकू, नमक, मिर्च, मसाला महँगा होगया तो मज़दूरों की असल उजरत कम होगई समझनी चाहिए; क्योंकि नक़द उजरत के बदले ये चीज़ें कम आयेंगी। इसके विपरीत यदि ये चीज़ें सस्ती बिकने लगीं तो असल उज़रत की शरह बढ़ गई समझनी चाहिए; क्योंकि, इस दशा में, नक़्द उजरत के थोड़े ही अंश से मेहनती आदमियों को खाने-पीने की चीज़ें मिल जायँगी। बहुत लोग समझते हैं कि यदि किसी मज़दूर की नक़्द मज़दूरी सबाई हो जाय तो वह पहले से सवाया मालदार हो जायगा। यह बहुत बड़ी भूल है। कल्पना कीजिए कि एक बेलदार को ४ आनें रोज़ मज़दूरों मिलती है और अनाज का भाव उस समय रुपये का १६ सेर है। अब यदि उसकी मज़दूरी ५ आने रोज़ होजाय, और साथही अनाज का भाव तेज़ होकर रुपये का ११ ही सेर रह जाय, तो एक आना अधिक मज़दूरी मिलने से मज़दूर को क्या फ़ायदा होगा? कुछ भी नहीं। जितनी नक़द मज़दूरी बढ़ी उतनी असल मज़दूरी कम होगई। कभी-वेशी का नतीजा बराबर होगया-बात जैसी थी वैसी ही रही। इससे यह सिद्धान्त निकला कि मज़दूरों की मज़दूरी पर व्यावहारिक चीज़ों के महँगे-सस्ते होने की बहुत बड़ा असर पड़ता है। यदि ये चीज़ें सस्ती होजायँ तो मज़दूरों की निक़द मज़दूरी का निर्ख़ बढ़गया समझना चाहिए; और यदि महँगी हो जायँ तो नक़द मज़दूरी का निर्ख़ घट गया समझना चाहिए।

हर आदमी को यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि वह अपनी मेहनत से अधिक सम्पत्ति पैदा करें। यदि थोड़ी मेहनत से बहुत चीज़ें तैयार होंगी तो में सस्ती बिकेंगी और सब लोग आसानी से ले सकेंगे। कल्पना कीजिए कि पाँच आदमी मिलकर गाढ़े का एक थान दो दिन में तैयार करते हैं। अब यदि वे दो दिन में दो थान तैयार करें तो उतनी हीं मेहनत से दूनी सम्पत्ति उत्पन्न होगी। परिणाम यह होगा कि गाढ़ा पहले से बहुत सस्ता बिकेगा। अन्यान्य व्यावहारिक चीज़ें भी यदि इसी तरह, मेहनत की अधिक फलोत्पादकता के कारण, सस्ती होजायँ तो थोड़ी आमदनी वाले आदमी