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मज़दूरी।

तैयार कर सकेगा। अतएव पहले को नौकर रखने से कारख़ानेदार को लाभ होगा और दूसरे को रखने से हानि। इसी बात को दूसरी तरह से यों कह सकते हैं कि पहले से काम लेने में असल उजरत कम देनी पड़ेगी और दूसरे से काम लेने में अधिक।

कल्पना कीजिए कि दो मोची हैं। उनकी उजरत एक रुपया रोज़ है। उनमें से एक अच्छा कारीगर नहीं है। उसके एक दिन में बनाये हुए एक जोड़े बूट पर, मज़दूरी छोड़कर, एक रुपया लागत आती है और वह पौने दो रुपये को बिकता है। दूसरे के उतने ही समय में बनाये हुए बूट पर, मज़बूरी छोड़कर, उतनी ही लागत बैठती है, पर वह ढ़ाई रुपये की बिकता है। अतएव पहले कारीगर को एक रुपया मज़दूरी देने का बदला कारख़ानेदार की सिर्फ़ बारह आने मिलता है; पर दूसरे को उतनी ही उजरत देने का बदला ढेढ़ रुपया मिलता है। पहली सूरत में उसे चार आने घाटा होता है, और दूसरी में आठ आने मुनाफ़ा। इससे स्पष्ट है कि दोनों सूरत में नक़्द मज़दूरी का निर्ख़ एक होकर भी एक सूरत में कारख़ानेदार को असल मज़दूरी अधिक देनी पड़ती हैं, दूसरी में कम। इससे अधिक उज़रत उन्हीं कारीगरों और मज़दूरों को मिलती हैं जिनकी मेहनत से कारख़ानेदार को असल उजरत के हिसाब से कम ख़र्च करना पड़ता है। जब कारख़ानेदार को किसी कारण से कुछ आदमियों को छुड़ाना पड़ता है तब वह उन्हीं को छुड़ाता है जिनके कार्य्य-कुशल न होने के कारण कारख़ाने में तैयार हुए माल पर अधिक ख़र्च बैठता है। यह इस बात का प्रमाण है कि असल उजरत को ध्यान में रखकर ही कारख़ानेदार मज़दूरों को छुड़ाते या अधिक उजरत देते हैं।

मज़दूरी के निर्ख़ का कमोवेश होना पूँजी के परिमाण और मज़दूरों की संख्या पर अवलम्बित रहता है। मैहनती आदमियों को जो उज़रत दीजाती है वह चल या भ्राम्यमान पूँजी से दी जाती है। अथवा यों कहिए कि चल पूँजी का जो भाग मज़दूरों के मज़दूरी देने के लिए अलग रख लिया जाता है उसी से मज़दूरी दी जाती है। चल पूँजी जितनी ही अधिक होगी मज़दूरों को लाभ भी उतना ही अधिक होगा, और वह जितनी ही कम होगी हानि भी उनकी उतनी ही होगी। परन्तु मज़दूरों की संख्या को भी मज़दूरी के निर्ख़ पर बड़ा असर पड़ता है। क्योंकि देश की सारी चल पूँजी मज़-