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सम्पत्ति-शास्त्र।


यह बात हम एक जगह लिख आये हैं कि यदि कुछ विशेष कारण न हो तो आबादी बढ़ने से देश की आर्थिक दशा सुधरने के बदले बिगड़ जाती है। इधर उससे व्यापार-व्यवसाय करने वालों का मुनाफ़ा कम हो जाता है, उधर ज़मीन का लगान बढ़ जाता है। यदि पूँजी न बढ़ी और देश में आबादी बढ़ गई तो मज़दूरी का निर्ख़ कम होजाता है। अर्थात् आबादी बढ़ने से देश की सब तरह से हानिही होती है।

योरप के विद्वानों ने आबादी के विषय का अच्छी तरह विचार किया है और कितनेहीं उत्तमोत्तम ग्रन्थ भी लिखे हैं। इन ग्रन्थों में भाल्थस नामक एक साहब का ग्रन्थ सब से अधिक महत्त्व का है। उसमें लिखा है कि जितने प्राणी हैं प्रायः सभी प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करके अपनी अपनी वृद्धि करते रहते हैं। यदि उनकी यह असाधारण वृद्धि रोकी न जाय तो किसी समय इस इतनी बड़ी पृथ्वी पर पैर रखने को भी जगह न रह जाय। इस दशा में जीवन-निर्वाह के साधन बहुत ही कम हो जायँ और अधिकांश जीवधारियों को भूखों मरना पड़े। इससे लड़ाइयाँ, दुर्भिक्ष, महामारी, अतिवृष्टि, भूडोल, ज्वालामुखी पर्वतों के स्फोट आदि उपद्रव खड़े करके मानों ईश्वर इस दुर्लध्य आपत्ति से प्राणियों की रक्षा करता है। इस तरह मनुष्य-संख्या की वृद्धि का जो आप ही आप प्रतिबन्ध होता रहता है उसका नाम है—नैसर्गिक निरोध। परन्तु इसके सिवा अविवाहित रह कर, बड़ी उम्र में विवाह करके, जान बूझ कर थोड़ी सन्तान उत्पन्न करके, किसी किसी सभ्य और शिक्षित देश के आदमी ख़ुद भी मनुष्य-संख्या की वृद्धि को रोकते हैं। इस रुकावट का नाम है—"कृत्रिम निरोध"। अमेरिका के संयुक्त राज्यों के राजा, सभापति रूज़वेल्ट, इस कृत्रिम निरोध के बहुत प्रतिकूल हैं। पर फ्रांस आदि कितनेही देशों के विचारशील लोग इस निरोध को बहुत लाभदायक समझते हैं और तदनुकूल व्यवहार भी करते हैं।

देशान्तर-बास से भी देश की मनुप्य-संख्या कम हो सकती है। पर जो लोग अपने देश में आराम से रह सकते हैं वे विदेश जाना नहीं पसन्द करते। अतएव यदि कुछ लोग और देश को चले भी जायँ, तो भी, देश के समृद्ध आदमियों की सन्तति बराबर बढ़ती रहेगी। हमारे देश के लिए यह इलाज उतना उपयोगी भी नहीं। क्योंकि जो लेाग ट्रांसवाल, नट्टाल आदि देशों में जाकर बस गये हैं, या व्यापार के निर्मित अचिरस्थायों तौर पर वहाँ रहने लगे,